Shriman Narayaneeyam

दशक 98 | प्रारंभ | दशक 100

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दशक ९९

विष्णोर्वीर्याणि को वा कथयतु धरणे: कश्च रेणून्मिमीते
यस्यैवाङ्घ्रित्रयेण त्रिजगदभिमितं मोदते पूर्णसम्पत्
योसौ विश्वानि धत्ते प्रियमिह परमं धाम तस्याभियायां
त्वद्भक्ता यत्र माद्यन्त्यमृतरसमरन्दस्य यत्र प्रवाह: ॥१॥

विष्णो:-वीर्याणि विष्णु के सामर्थ्य को
क: वा कथयतु कौन भला कह सकता है
धरणे: क:-च रेणून्-मिमीते धरती के कौन कणों को गिनेगा
यस्य-एव-अङ्घ्रि-त्रयेण जिनके ही चरणों के तीन डगों से
त्रि-जगत्-अभिमितं त्रिलोक नाप लिया गया
मोदते पूर्ण-सम्पत् (वहां) आनन्द मग्न हैं सभी सम्पदाएं
य:-असौ विश्वानि धत्ते जो इस विश्व को धारण करते हैं
प्रियम्-इह परमं धाम प्रिय मुझे (उनका) परम धाम
तस्य-अभियायां उनके को जाऊं
त्वत्-भक्ता:-यत्र माद्यन्ति- आपके भक्त जहां आनन्दविभोर रहते हैं
अमृत-रस-मरन्दस्य (जहां) अमृत रस का मधु
यत्र प्रवाह: जहां प्रवाहित होता है

विष्णु के सामर्थ्य का वर्णन कौन कर सकता है? धरती के कणों को कौन गिनेगा? जिनके चरणों के तीन डगों से यह जगत नाप लिया गया वहां सभी सम्पदाएं आनन्द मग्न रह्ती हैं। इस विश्व को धारण करने वाले का धाम (वैकुण्ठ) मुझे अति प्रिय है, मैं वहीं जाऊं। वहां अमृत रस का मधु निरन्तर प्रवाहित होता है, और वहां आपके भक्त जन आनन्द विभोर रहते हैं।

आद्यायाशेषकर्त्रे प्रतिनिमिषनवीनाय भर्त्रे विभूते-
र्भक्तात्मा विष्णवे य: प्रदिशति हविरादीनि यज्ञार्चनादौ ।
कृष्णाद्यं जन्म यो वा महदिह महतो वर्णयेत्सोऽयमेव
प्रीत: पूर्णो यशोभिस्त्वरितमभिसरेत् प्राप्यमन्ते पदं ते ॥२॥

आद्याय-अशेष-कर्त्रे आदि (पुरुष) के लिए, निश्शेष के रचयिता के लिए
प्रति-निमिष-नवीनाय प्रत्येक पल नूतन के लिए
भर्त्रे विभूते:- धातृ सभी विभूतियों के लिए
भक्तात्मा विष्णवे य: भक्त, विष्णु के लिए जो
प्रदिशति हवि:-आदीनि अर्पण करता है हविष आदि
यज्ञ-अर्चन-आदौ यज्ञ पूजा आदि से
कृष्णाद्यं जन्म य: वा कृष्ण आदि (अवतारों) के जन्म को जो अथवा
महत्-इह महत: यहां महान से भी अत्यन्त महान का
वर्णयेत्-स:-अयम्-एव वर्णन करे, वह यह ही
प्रीत: पूर्ण: सुखसम्पन और परिपूर्ण
यशोभि:-त्वरितम्- यशों से, शीघ्र ही
अभिसरेत् प्राप्यम्- पहुंच जाता है प्राप्तव्य
अन्ते पदं ते अन्ते में, पद को आपके

निश्शेष के रचयिता, प्रतिपल नूतन आदि पुरुष, सभी विभूतियों के धातृ विष्णु को जो भक्त यज्ञ अथवा पूजा से हविष अर्पित करता है, अथवा जो भक्त, इस जग में महान से भी महत कृष्ण के जन्म और उनके अवतारों का वर्णन करता है, वह अन्त में यश-परिपूर्ण से परिपूर्ण और सुख-सम्पन्न आपके उस पद को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है।

हे स्तोतार: कवीन्द्रास्तमिह खलु यथा चेतयध्वे तथैव
व्यक्तं वेदस्य सारं प्रणुवत जननोपात्तलीलाकथाभि: ।
जानन्तश्चास्य नामान्यखिलसुखकराणीति सङ्कीर्तयध्वं
हे विष्णो कीर्तनाद्यैस्तव खलु महतस्तत्त्वबोधं भजेयम् ॥३॥

हे स्तोतार: कवीन्द्रा:- हे स्तुति परक कुशल कवि गण!
तम्-इह खलु उन (ईश्वर) को निश्चित रूप से
यथा चेतयध्वे तथा-एव जिस भी प्रकार (आप लोग) समझते हैं वैसे ही
व्यक्तं वेदस्य सारं प्रणुवत वस्तुत: (जो) वेदों के सार हैं, (उनको) नमन (करते हैं)
जनन-उपात्त-लीला-कथाभि: जन्म अवतार लीला आदि की कथाओं से
जानन्त:-च-अस्य और जानते हुए उनके
नामानि-अखिल- नामों को जो असीम
सुख-कराणी-इति सुख के कारणभूत है इस प्रकार
सङ्कीर्तयध्वं संकीर्तन करिए
हे विष्णो हे विष्णो!
कीर्तन-आद्यै:-तव संकीर्तन आदि आपके (नामों) से
खलु महत:-तत्त्व-बोधं निश्चय पूर्वक अत्यन्त महान तत्त्व बोध को
भजेयम् प्राप्त कर लूंगा

हे स्तुति परक कुशल कवि गण! वेदों के उन ईश्वर को आपलोग जैसा भी समझते हैं, वैसा ही उनके जन्म और अवतार की लीलाओं आदि का गान करके उनको नमन करते हैं। अनेक सुखों के कारणभूत उनके नामों को जान कर उन नामों का सङ्कीर्तन कीजिए। हे विष्णु! अत्यन्त महान तत्व बोधक ज्ञान के दाता आपके नामों का कीर्तन कर के मैं भी उस तत्त्व बोध को पा लूंगा।

विष्णो: कर्माणि सम्पश्यत मनसि सदा यै: स धर्मानबध्नाद्
यानीन्द्रस्यैष भृत्य: प्रियसख इव च व्यातनोत् क्षेमकारी ।
वीक्षन्ते योगसिद्धा: परपदमनिशं यस्य सम्यक्प्रकाशं
विप्रेन्द्रा जागरूका: कृतबहुनुतयो यच्च निर्भासयन्ते ॥४॥

विष्णो: कर्माणि महा विष्णु के कर्मों का
सम्पश्यत मनसि चिन्तन करो मन में
सदा यै: स सर्वदा जिन (कर्मो) से वे
धर्मान्-अबध्नात्- धर्मों को स्थापित करते हैं
यानि-इन्द्रस्य-एष जिन (कर्मों) से इन इन्द्र के
भृत्य: प्रियसख इव च सेवक और सखा के समान (व्यवहार करके)
व्यातनोत् क्षेमकारी सम्पन्न किया कल्याण और क्षेम
वीक्षन्ते योगसिद्धा: अनुभव करते हैं योगी और सिद्ध जन
परपदम्-अनिशं (उस) परम पद का दिन रात
यस्य सम्यक्-प्रकाशं जिसका सुप्रकाश
विप्रेन्द्रा:-जागरूका: विप्र गण जागरुक जन
कृत-बहु-नुतय: करके अनेक स्तुतियां
यत्-च निर्भासयन्ते जिनको प्रकाशित करते हैं

हे कविगण! जिन कर्मॊं से महा विष्णु सर्वदा धर्म की स्थापना करते हैं, जिन कर्मों से वे कभी इन्द्र के सेवक और कभी सखा के समान व्यवहार कर के कल्याण और क्षेम का वहन करते हैं, योगी और सिद्ध जन जिनके सुप्रकाशित परम पद का निरन्तर अनुभव करते हैं, जागरुक विज्ञ विप्र गण नाना स्तुतियों से जिनको प्रकाशित करने का प्रयास करते हैं, आप अपने मन में उन कर्मों का चिन्तन कीजिए।

नो जातो जायमानोऽपि च समधिगतस्त्वन्महिम्नोऽवसानं
देव श्रेयांसि विद्वान् प्रतिमुहुरपि ते नाम शंसामि विष्णो ।
तं त्वां संस्तौमि नानाविधनुतिवचनैरस्य लोकत्रयस्या-
प्यूर्ध्वं विभ्राजमाने विरचितवसतिं तत्र वैकुण्ठलोके ॥५॥

नो जात:-जायमान:-अपि च न उत्पन्न हुए, न ही (जो) उत्पन्न हो रहे हैं
समधिगत:-त्वत्-महिम्न:- समझ पाए हैं आपकी महिमा को
अवसानं (उसकी) असीमता को
देव श्रेयांसि विद्वान् हे देव! कल्याणकारी जान कर
प्रति-मुहु:-अपि हर क्षण भी
ते नाम शंसामि विष्णो आपके नामों का कीर्तन करूगा, हे विष्णु!
तं त्वां संस्तौमि उन आपकी स्तुति करूंगा
नानाविध-नुति-वचनै:- नाना प्रकार की स्तुतियों के द्वारा
अस्य लोक-त्रयस्य- इस त्रिलोक के
अपि-ऊर्ध्वं विभ्राजमाने भी ऊपर देदीप्यमान
विरचित-वसतिं रचित और संसेवित
तत्र वैकुण्ठलोके उस वैकुण्ठ लोक में

जो उत्पन्न हो गए हैं, और जो उत्पन्न हो रहे हैं, कोई भी आपकी महिमा और उसकी असीमता को नहीं समझ पाया है। हे देव! कल्याणकारी जान कर मैं हर क्षण आपके नामों का सकीर्तन करूंगा। हे विष्णु! आपके देदीप्यमान निवास वैकुण्ठ लोक मे जो त्रिलोकों के भी ऊपर रचित और सेवित निवास करने वाले हैं, मैं, नाना प्रकार की स्तुतियों द्वारा आपकी वन्दना करूंगा।

आप: सृष्ट्यादिजन्या: प्रथममयि विभो गर्भदेशे दधुस्त्वां
यत्र त्वय्येव जीवा जलशयन हरे सङ्गता ऐक्यमापन् ।
तस्याजस्य प्रभो ते विनिहितमभवत् पद्ममेकं हि नाभौ
दिक्पत्रं यत् किलाहु: कनकधरणिभृत् कर्णिकं लोकरूपम् ॥६॥

आप: सृष्टि-आदि-जन्या: जल सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुआ
प्रथमम्-अयि विभो सब से पहले, अयि विभो!
गर्भ-देशे दधु:-त्वां (अपने) भीतर में धारण किया आपको
यत्र त्वयि-एव जीवा: जहां आप ही में जीव
जलशयन हरे हे जलशायन हरे!
सङ्गता:-ऐक्यम्-आपन् समग्र हो कर एकता को प्राप्त करके
तस्य-अजस्य प्रभो ते उन अजन्मा प्रभो आपके
विनिहितम्-अभवत् (अन्दर) लीन हो कर
पद्मम्-एकं हि नाभौ कमल एक निश्चय ही (आपकी) नाभि में उत्पन्न हुआ
दिक्-पत्रं यत् किल-आहु: दिशाएं पत्ते जिसके कहे गए
कनकधरणिभृत् (और) स्वर्णिम महा मेरु
कर्णिकं लोक-रूपम् कर्णिका लोक रूप

ऐ विभो! सृष्टि के आरम्भ में जल उत्पन्न हुआ और सब से पहले उसने आपको अपने गर्भ में धारण किया। हे जलशायन हरे! वहां समस्त जीव समग्रता से एक्यभाव को प्राप्त हो कर अजन्मा आपमें ही लीन हो गए। आपकी नाभि में एक कमल उत्पन्न हुआ। उस लोकरूपी कमल के पत्तों को दिशाएं और कर्णिका को स्वर्णिम महा मेरु कहा गया।

हे लोका विष्णुरेतद्भुवनमजनयत्तन्न जानीथ यूयं
युष्माकं ह्यन्तरस्थं किमपि तदपरं विद्यते विष्णुरूपम् ।
नीहारप्रख्यमायापरिवृतमनसो मोहिता नामरूपै:
प्राणप्रीत्यैकतृप्ताश्चरथ मखपरा हन्त नेच्छा मुकुन्दे ॥७॥

हे लोका अरे मनुष्यों!
विष्णु:-एतत्-भुवनम्-अजनयत्- विष्णु ने इस जगत की रचना की
तत्-न जानीथ यूयं उनको नहीं जानते तुम लोग
युष्माकं हि-अन्तरस्थं तुम्हारे ही अन्दर स्थित
किमपि तत्-परं कोई उससे अन्य
विद्यते विष्णुरूपं विद्यमान है विष्णु का रूप
नीहार-प्रख्य-माया- धुन्ध समान माया से
परिवृत-मनस: आच्छादित मन वाले (तुम)
मोहिता: नाम-रूपै: मोहित हो नामों और रूपों से
प्राण-प्रीति-एक-तृप्ता:- इन्द्रिय सुखों मात्र से तृप्त हुए
चरथ मखपरा विचरते हो, यज्ञ आदि में तत्पर
हन्त न-इच्छा मुकुन्दे हाय! नही है इच्छा मुकुन्द में

अरे मनुष्यों! विष्णु ने ही इस जगत की रचना की है, और वे ही अन्य किसी विष्णु रूप से तुम्हारे अन्दर विद्यमान हैं। उनको ही तुम लोग नहीं जानते। तुम्हारा मन धुन्ध के समान माया से आच्छादित है। तुम विभिन्न नामों और रूपों से मोहित हो, और मात्र इन्द्रिय सुखों से ही तृप्त हुए यज्ञ आदि में तत्पर हो कर विचरते हो। हाय! तुममें मुकुन्द को पाने की तो इच्छा ही नहीं है!

मूर्ध्नामक्ष्णां पदानां वहसि खलु सहस्राणि सम्पूर्य विश्वं
तत्प्रोत्क्रम्यापि तिष्ठन् परिमितविवरे भासि चित्तान्तरेऽपि ।
भूतं भव्यं च सर्वं परपुरुष भवान् किञ्च देहेन्द्रियादि-
ष्वाविष्टोऽप्युद्गतत्वादमृतसुखरसं चानुभुङ्क्षे त्वमेव ॥८॥

मूर्ध्नाम्-अक्ष्णां मस्तकों, नेत्रों
पदानां वहसि खलु चरणों से व्याप्त हैं निश्चय ही
सहस्राणि सहस्रों
सम्पूर्य विश्वं सम्पूर्ण विश्व को
तत्-प्रोत्क्रम्य-अपि उसका अतिक्रमण करके भी
तिष्ठन् परिमित-विवरे स्थित है संकुचित विवर में
भासि-चित्त-अन्तरे-अपि प्रभासित होते हैं चित्त के अन्दर भी
भूतं भव्यं च सर्वं भूत भविष्यत और सभी
परपुरुष भवान् हे पर पुरुष! आप
किञ्च देह-इन्द्रिय-आदिषु- और क्या, शरीर इन्द्रिय आदि में भी
आविष्ट:-अपि- प्रवेश कर के भी
उद्गतत्वात्- (उन सब से) परे होने से भी
अमृत-सुख-रसं अमृत सुख के रस का
च-अनुभुङ्क्षे त्वम्-एव और उपभोग करते हैं आप ही

हे पर पुरुष! आप सहस्रों मस्तकों, नेत्रों और चरणों से सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हैं। इस विश्व का अतिक्रमण कर के भी स्थित हैं। चिदाकाश के संकुचित विवर में भी भूत भविष्यत और सभी प्रभासित होते हैं। और तो और, शरीर इन्द्रिय आदि में प्रवेश करके उन सब से परे होने पर आप ही अमृत सुख रस का भी उपभोग करते हैं।

यत्तु त्रैलोक्यरूपं दधदपि च ततो निर्गतोऽनन्तशुद्ध-
ज्ञानात्मा वर्तसे त्वं तव खलु महिमा सोऽपि तावान् किमन्यत् ।
स्तोकस्ते भाग एवाखिलभुवनतया दृश्यते त्र्यंशकल्पं
भूयिष्ठं सान्द्रमोदात्मकमुपरि ततो भाति तस्मै नमस्ते ॥९॥

यत्-तु त्रैलोक्य-रूपं दधत्- जो वास्तव में त्रिलोक का रूप धारण करते हैं
अपि च तत: निर्गत:- और तब भी उससे परे हैं
अनन्त-शुद्ध-ज्ञान-आत्मा असीम शुद्ध ज्ञान स्वरूप
वर्तसे त्वं तव खलु स्थित हैं आप, आपकी निश्चय
महिमा स:-अपि ही महिमा है वह भी
तावान् किम्-अन्यत् उसके समान क्या है और
स्तोक:-ते भाग: अंश मात्र आपका भाग
एव अखिल-भुवन-तया ही समस्त ब्रह्माण्ड सृष्टिमय
दृश्यते त्र्यंश-कल्पं दृष्टि गोचर है, त्रिमूर्ति मय
भूयिष्ठं सान्द्र-मोद-आत्मकम्- अधिकांश घनिष्ट आनन्द स्वरूप से
उपरि तत: भाति ऊपर भी उसके प्रकाशित होता है
तस्मै नम:-ते उन आपको नमन है

आप स्वयं ही त्रिलोक का रूप धारण करते हैं, और फिर उससे परे रह कर भी असीम शुद्ध ज्ञान स्वरूप में स्थित हैं। यह आप ही की महिमा है। इसके समान और क्या है? आपके अंश मात्र भाग से ही समस्त ब्रह्माण्ड सृष्टिमय दृष्टिगोचर होता है। आपका तीन चौथाई अंश घनीभूत आनन्दाअत्मक रूप से उसके भी ऊपर प्रकाशित रहता है। हे प्रभो! आपके इस स्वरूप को नमन है।

अव्यक्तं ते स्वरूपं दुरधिगमतमं तत्तु शुद्धैकसत्त्वं
व्यक्तं चाप्येतदेव स्फुटममृतरसाम्भोधिकल्लोलतुल्यम् ।
सर्वोत्कृष्टामभीष्टां तदिह गुणरसेनैव चित्तं हरन्तीं
मूर्तिं ते संश्रयेऽहं पवनपुरपते पाहि मां कृष्ण रोगात् ॥१०॥

अव्यक्तं ते स्वरूपं अव्यक्त आपका स्वरूप (निर्गुण)
दुरधिगमतमं दुर्बोधगम्य है
तत्-तु शुद्ध-एक-सत्त्वं वह भी शुद्ध और सात्त्विक
व्यक्तं च-अपि- व्यक्त और भी
एतत्-एव स्फुटम्- यह ही प्रत्यक्ष (दृष्टिगोचर) (सगुण)
अमृत-रस-अम्भोधि- अमृत रस के सागर
कल्लोल-तुल्यम् (की) तरङ्गों के समान
सर्वोत्कृष्टाम्-अभीष्टां तत्-इह सब से श्रेष्ठ और अत्यन्त प्रिय वह ही यहां
गुण-रसेन-एव चित्तं हरन्तीं गुणों के रसों से ही चित्त को लुभाती है
मूर्तिं ते संश्रये-अहं प्रतिमा आपकी, शरणागत हूं मैं
पवनपुरपते पाहि मां हे पवनपुरपते! रक्षा करें मेरी
कृष्ण रोगात् हे कृष्ण! रोगों से

आपका शुद्ध और सात्त्विक अव्यक्त निर्गुण स्वरूप दुर्बोधगम्य है। आपका व्यक्त, दृष्टिगोचर, प्रत्यक्ष स्वरूप, अमृत रस के सागर की तरङ्गों के समान सब से श्रेष्ठ और अत्यन्त प्रिय है। गुणों के रसों से चित्त को लुभाने वाली आपकी प्रतिमा का मैं शरणागत हूं। हे पवनपुरपते! हे कृष्ण! रोगों से मेरी रक्षा करें।

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