Shriman Narayaneeyam

दशक 76 | प्रारंभ | दशक 78

English


दशक ७७

सैरन्ध्र्यास्तदनु चिरं स्मरातुराया
यातोऽभू: सुललितमुद्धवेन सार्धम् ।
आवासं त्वदुपगमोत्सवं सदैव
ध्यायन्त्या: प्रतिदिनवाससज्जिकाया: ॥१॥

सैरन्ध्र्या:- सैरन्ध्री के (पास)
तदनु चिरं तदनन्तर, (जो) चिरकाल से
स्मर-आतुराया कामातुर थी
यात:-अभू: चले गए
सुललितम्- सुसज्जित हो कर
उद्धवेन सार्धम् उद्धव के साथ
आवासं निवास स्थान पर (उसके)
त्वत्-उपगम-उत्सवं आपके आगमन के उत्सव का
सदा-एव सदैव ही
ध्यायन्त्या: प्रतीक्षा करती हुई
प्रतिदिन-वास-सज्जिकाया: प्रतिदिन अपने घर को और स्वयं को सजाती थी

तदनन्तर, चिरकाल से कामातुर सौरन्ध्री, के पास सुसज्जित वेश में उद्धव के साथ आप उसके निवास स्थान पर गए। आपके आगमन के उत्सव की प्रतीक्षा में निरन्तर रत वह प्रतिदिन स्वयं को और अपने घर को सजाती रहती थी।

उपगते त्वयि पूर्णमनोरथां प्रमदसम्भ्रमकम्प्रपयोधराम् ।
विविधमाननमादधतीं मुदा रहसि तां रमयाञ्चकृषे सुखम् ॥२॥

उपगते त्वयि आजाने पर आपके
पूर्णमनोरथाम् परिपूर्ण मनोरथ वाली
प्रमद-सम्भ्रम- हर्ष और प्रफुल्लता से
कम्प्र-पयोधराम् कम्पायमान स्तनों वाली
विविध-माननम्- नाना प्रकार के सत्कारों से
आदधतीं मुदा सम्मान देती हुई प्रसन्नता से
रहसि तां एकान्त में उसको
रमयान्-चकृषे (आपने) आनन्दित कर के
सुखम् सुख से

आपके आजाने पर सौरन्ध्री मानो पूर्ण मनोरथ हो गई। हर्ष और प्रफुल्लता से उसके स्तन कम्पायमान हो रहे थे, और वह प्रसन्नता से भरी हुई वह नाना प्रकार के सत्कारों से आपको सम्मान दे रही थी। आपने एकान्त में उसे आनन्द दे कर सुखी किया।

पृष्टा वरं पुनरसाववृणोद्वराकी
भूयस्त्वया सुरतमेव निशान्तरेषु ।
सायुज्यमस्त्विति वदेत् बुध एव कामं
सामीप्यमस्त्वनिशमित्यपि नाब्रवीत् किम् ॥३॥

पृष्टा वरं पूछे जाने पर वरदान के लिए
पुन:-असौ- फिर इसने
अवृणोत्-वराकी वरण किया बेचारी ने
भूय:-त्वया फिर से आप के साथ
सुरतम्-एव रमण ही
निशा-अन्तरेषु रात्रियों में अन्य
सायुज्यम्-अस्तु- सायुज्य हो
इति वदेत् बुध एव ऐसा कहें बुद्धिमान ही
कामं (अथवा) निश्चय ही
सामीप्यम्-अस्तु-अनिशम्- सामीप्य हो सदा
इति-अपि- ऐसा भी
न-अब्रवीत् किम् नहीं कहा क्यों

आपके द्वारा वरदान मांगने के लिये पूछे जाने पर उस बेचारी ने आगामी रात्रियों में भी आपके संग रमण ही मांगा। 'सायुज्य प्राप्त हो' ऐसा वर शायद बुद्धिमान ही मांग पाएं। किन्तु वह बेचारी 'सदैव सामीप्य प्राप्त हो' ऐसा भी नहीं कहा पाई!

ततो भवान् देव निशासु कासुचिन्मृगीदृशं तां निभृतं विनोदयन् ।
अदादुपश्लोक इति श्रुतं सुतं स नारदात् सात्त्वततन्त्रविद्बबभौ ॥४॥

तत: भवान् देव तब आपने हे देव!
निशासु कासुचित्- रात्रियों में कुछ
मृगीदृशं तां निभृतं उस मृगाक्षी को एकान्त में
विनोदयन् अदात्- आनन्दित कर के दिया
उपश्लोक इति उपश्लोक इस प्रकार
श्रुतं सुतं विख्यात पुत्र
स नारदात् वह नारद से
सात्त्वत-तन्त्र-विद् बभौ सात्त्वत तन्त्र विद्वान हो गया

हे देव! तब आपने उस मृगाक्षी को कुछ एकान्त रात्रियों में आनन्द दिया। उसने उपश्लोक नामक विख्यात पुत्र को जन्म दिया। नारद से सात्त्वत तन्त्र की विद्या पा कर वह उसमें निष्णात हो गया।

अक्रूरमन्दिरमितोऽथ बलोद्धवाभ्या-
मभ्यर्चितो बहु नुतो मुदितेन तेन ।
एनं विसृज्य विपिनागतपाण्डवेय-
वृत्तं विवेदिथ तथा धृतराष्ट्र्चेष्टाम् ॥५॥

अक्रूर-मन्दिरम्- अक्रूर के घर
इत:-अथ जा कर, तब
बल-उद्धवाभ्याम्- बलराम और उद्धव के साथ
अभ्यर्चित: बहु नुत: समर्चित और समस्तुत हुए
मुदितेन तेन आनन्दविभोर उस (अक्रूर) के द्वारा
एनं विसृज्य उसको भेज कर
विपिन-आगत- वन से आए
पाण्डवेय-वृत्तं पाण्डवों के वृतान्तों को
विवेदिथ तथा जाना और
धृतराष्ट्र-चेष्टाम् धृतराष्ट्र की चेष्टाओं को

तदनन्तर आप बलराम और उद्धव के साथ अक्रूर के घर गये। आनन्दविभोर अक्रूर ने आपकी अर्चना और स्तुति की। आपने अक्रूर को भेज कर वन से लौटे हुए पाण्डवों का वृतान्त जाना और धृतराष्ट्र की चेष्टाओं के बारे में भी जाना।

विघाताज्जामातु: परमसुहृदो भोजनृपते-
र्जरासन्धे रुन्धत्यनवधिरुषान्धेऽथ मथुराम् ।
रथाद्यैर्द्योर्लब्धै: कतिपयबलस्त्वं बलयुत-
स्त्रयोविंशत्यक्षौहिणि तदुपनीतं समहृथा: ॥६॥

विघातात्-जामातु: वध से जामाता के
परम-सुहृद: परम मित्र के
भोज-नृपते:- भोजराज (कंस) के
जरासन्धे रुन्धति- जरासन्ध के घेर लेने पर (मथुरा को)
अनवधि-रुषा-अन्धे- अदम्य क्रोध से अन्ध
अथ मथुराम् तब मथुरा को
रथ-आद्यै:-द्यो:-लब्धै: रथ आदि स्वर्ग से प्राप्त कर के
कतिपय-बल:-त्वं कुछ सैनिकों से आप
बल-युत:- बलराम सहित
त्रय:-विंशति-अक्षौहिणि तेईस अक्षौहिणि
तत्-उपनीतं समहृथा: उसके द्वारा लाई गई, का संहार कर दिया

अपने परम मित्र और जामाता भोजराज कंस के वध से जरासन्ध अदम्य क्रोध से अन्धा हो गया और उसने मथुरा को घेर लिया। स्वर्ग से लाए हुए रथ आदि उपकरणों और कुछ सैनिकों के साथ बलराम के साथ मिलकर आपने, जरासन्ध के द्वारा लाई गई तेईस अक्षौहिणी सेना का संहार कर दिया।

बद्धं बलादथ बलेन बलोत्तरं त्वं
भूयो बलोद्यमरसेन मुमोचिथैनम् ।
निश्शेषदिग्जयसमाहृतविश्वसैन्यात्
कोऽन्यस्ततो हि बलपौरुषवांस्तदानीम् ॥७॥

बद्धं बलात्-अथ बन्दी (बना लिया) बलपूर्वक तब
बलेन बलोत्तरं बलराम के द्वारा (वह) अति बलवान
त्वं भूय: आपने फिर
बल-उद्यम-रसेन (उसे) सेना लाने के उद्यम की भावना से
मुमोचिथ-एनं छोड दिया इसको
निश्शेष-दिक्- प्रत्येक दिशा से
जय-समाहृत- विजय कर के संगृहीत
विश्व-सैन्यात् समस्त सेना से
क:-अन्य:-तत: हि कौन दूसरा उससे ही
बल-पौरुषवान्- बलवान और पौरुषवान था
तदानीम् उस समय

तब अत्यन्त बलशाली वह जरासन्ध बलराम के द्वारा बन्दी बना लिया गया। किन्तु यह इच्छा रखते हुए कि वह फिर सेना ले कर आए, आपने उसे छोड दिया। प्रत्येक दिशा के राज्यों पर विजय प्राप्त कर के जरासन्ध ने भारी सेना संगृहीत कर ली थी। इसलिये उस समय बल और पौरुष में उसके समान कौन था?

भग्न: स लग्नहृदयोऽपि नृपै: प्रणुन्नो
युद्धं त्वया व्यधित षोडशकृत्व एवम् ।
अक्षौहिणी: शिव शिवास्य जघन्थ विष्णो
सम्भूय सैकनवतित्रिशतं तदानीम् ॥८॥

भग्न: स भग्न हुआ हुआ वह
लग्न-हृदय:-अपि साथ में मन भी (भग्न होने पर) भी
नृपै: प्रणुन्न: राजाओं के द्वारा प्रेरित (उसने)
युद्धं त्वया व्यधित युद्ध आपके साथ किया
षोडशकृत्व:-एवं सोलह बार इस प्रकार
अक्षौहिणी: अक्षौहिणी के साथ
शिव शिव-अस्य शिव शिव उसका
जघन्थ संहार कर दिया
विष्णो हे विष्णो!
सम्भूय कुल
स-एक-नवति-त्रिशतं वह एक नब्बे और तीन सौ (३९१)
तदानीम् उस समय (युद्धों में)

हे विष्णो! पराजित जरासन्ध ने, जिसका मनोबल भी टूट गया था, अन्य राजाओं के द्वारा प्रेरित हो कर अक्षौहिणी सेना के साथ सोलह बार आपके साथ युद्ध किया। शिव शिव! उस समय युद्धों में आपने उसकी तीन सौ इक्यानबे सेनाओं का संहार कर दिया।

अष्टादशेऽस्य समरे समुपेयुषि त्वं
दृष्ट्वा पुरोऽथ यवनं यवनत्रिकोट्या ।
त्वष्ट्रा विधाप्य पुरमाशु पयोधिमध्ये
तत्राऽथ योगबलत: स्वजनाननैषी: ॥९॥

अष्टादशे-अस्य अट्ठारहवें इसके (जरासन्ध के)
समरे समुपेयुषि युद्ध के आरम्भ में
त्वं दृष्ट्वा पुर:-अथ आपने देखा सामने तब
यवनं यवन-त्रिकोट्या (काल) यवन को तीन करोड यवन सैनिकों (के साथ)
त्वष्ट्रा विधाप्य विश्वकर्मा के द्वारा बनवा कर
पुरम्-आशु नगरी को शीघ्र
पयोधि-मध्ये समुद्र के मध्य में
तत्र-अथ योग-बलत: वहां तब योग बल से
स्व-जनान्-अनैषी: स्वजनों को ले गए

जरासन्ध द्वारा अट्ठारहवें युद्ध का प्रारम्भ करने के पहले आपने सामने कालयवन को देखा जो तीन करोड यवन सैनिकों को ले कर उपस्थित था। तब आपने विश्वकर्मा से समुद्र के बीच में (द्वारका) पुरी का निर्माण करवाया और अपने योग बल से स्वजनों को वहां ले गए।

पदभ्यां त्वां पद्ममाली चकित इव पुरान्निर्गतो धावमानो
म्लेच्छेशेनानुयातो वधसुकृतविहीनेन शैले न्यलैषी: ।
सुप्तेनांघ्र्याहतेन द्रुतमथ मुचुकुन्देन भस्मीकृतेऽस्मिन्
भूपायास्मै गुहान्ते सुललितवपुषा तस्थिषे भक्तिभाजे ॥१०॥

पदभ्यां त्वं पैदल ही आप
पद्ममाली कमल माला धारण किये हुए
चकित इव किंकर्तव्यविमूढ के समान
पुरात्-निर्गत: धावमान: नगरी से निकल कर भागते हुए
म्लेच्छ-ईशेन-अनुयात: यवन राजा के द्वारा पीछा किए जाते हुए
वध-सुकृत-विहीनेन (आप के द्वारा) मारे जाने के पुण्य से विहीन
शैले न्यलैषी: पर्वत गुहा में ले जाया गया
सुप्तेन-अंघ्र्या-हतेन सोए हुए, पैर से मारे गए ने
द्रुतम्-अथ मुचुकुन्देन शीघ्र ही तब मुचुकुन्द ने
भस्मी-कृते-अस्मिन् भस्म कर दिया उसको
भूपाय-अस्मै गुहान्ते राजा (मुचुकुन्द) के लिए, गुफा में
सुललित-वपुषा सुमनोहर वेष में
तस्थिषे भक्तिभाजे उपस्थित हुए (आप) भक्तिमान के लिए

पद्मों की माला धारण किए हुए आप किंकर्तव्यविमूढ के समान पैदल ही भागने लगे। कालयवन आपका पीछा करने लगा। आप उसे एक पर्वत गुफा में ले गए। वहां राजा मुचुकुन्द सो रहे थे। आपके द्वारा मारे जाने के पुण्य से वञ्चित कालयवन ने, राजा पर चरण प्रहार किया और तत्क्षण राजा के द्वारा भस्मीभूत कर दिया गया। तब आप भक्तिमान राजा मुचुकुन्द के लिए सुमनोहर वेष में गुफा में प्रकट हुए।

ऐक्ष्वाकोऽहं विरक्तोऽस्म्यखिलनृपसुखे त्वत्प्रसादैककाङ्क्षी
हा देवेति स्तुवन्तं वरविततिषु तं निस्पृहं वीक्ष्य हृष्यन् ।
मुक्तेस्तुल्यां च भक्तिं धुतसकलमलां मोक्षमप्याशु दत्वा
कार्यं हिंसाविशुद्ध्यै तप इति च तदा प्रात्थ लोकप्रतीत्यै ॥११॥

ऐक्ष्वाक:-अहं इक्ष्वाकु (वंश) का हूं मैं
विरक्त:-अस्मि- वैरागी हूं
अखिल-नृप-सुखे समस्त राज्य भोगों से
त्वत्-प्रसाद- आपका अनुग्रह की
ऐक-काङ्क्षी केवलमेव आकाङ्क्षा करता हूं
हा देव-इति हा देव! इस प्रकार
स्तुवन्तम् स्तुति करते हुए
वर-विततिषु तं निस्पृहम् वर समूहों में उसको नि:स्पृह
वीक्ष्य हृष्यन् देख कर प्रसन्न हो कर
मुक्ते:-तुल्यां च भक्तिं मुक्ति के समान ही भक्ति
धुत-सकल-मलां (जो) परिष्कृत करने वाली सभी पापों को
मोक्षम्-अपि-आशु दत्वा मोक्ष भी तुरन्त दे कर
कार्यं हिंसा-विशुद्ध्यै करना चाहिये हिंसा शोधन के लिए
तप इति च तदा तपस्या इस प्रकार और तब
प्रात्थ लोक-प्रतीत्यै कहा लोक कल्याण के लिए

हा देव! मैं इक्ष्वाकु वंश का हूं। समस्त राजसीय भोगों से विरक्त हूं। केवलमेव आपके अनुग्रह की आकांक्षा रखता हूं।' इस प्रकार स्तुति करते हुए राजा मुचुकुन्द को देख कर और समस्त वरों मे स्पृहा रहित जान कर आप प्रसन्न हो गए। तुरन्त आपने पापों को नष्ट करने वाली मुक्ति के समान भक्ति दे दी और सभी पापों का परिष्करण करने वाला मोक्ष भी प्रदान कर दिया। इसके पश्चात लोक कल्याण के लिये अपने उसे क्षात्र धर्म जनित हिंसा के शोधन के लिए तपस्या करने का आदेश भी दिया।

तदनु मथुरां गत्वा हत्वा चमूं यवनाहृतां
मगधपतिना मार्गे सैन्यै: पुरेव निवारित: ।
चरमविजयं दर्पायास्मै प्रदाय पलायितो
जलधिनगरीं यातो वातालयेश्वर पाहि माम् ॥१२॥

तदनु मथुरां गत्वा तदनन्तर मथुरा जा कर
हत्वा चमूं संहार करके सेना का
यवन-आहृतां (जो) यवन के द्वारा लाई गई थी
मगधपतिना मगधपति (जरासन्ध) ने
मार्गे सैन्यै: पुरा-इव मार्ग में सेना के द्वारा पहले की ही भांति
निवारित: रोक दिया (आपको)
चरम-विजयम् अन्तिम विजय
दर्पाय-अस्मै गर्व के लिए उसके
प्रदाय पलायित: दे कर भाग गए
जलधि-नगरीं यात: समुद्र नगरी (द्वारका) को चले गए
वातालयेश्वर हे वातालयेश्वर!
पाहि माम् रक्षा करें मेरी

तदनन्तर, आपने मथुरा जा कर यवनों द्वारा लाई हुई सेना का संहार किया। फिर आपके द्वारका जाते समय जरासन्ध ने अपनी सेना द्वारा आपका मार्ग रोक लिया। उसके गर्व को पोषित करने के लिए आपने उसे एक अन्तिम विजय दे दी और पलायन कर के समुद्र नगरी द्वारका चले गए। हे वतालयेश्वर! मेरी रक्षा करें।

दशक 76 | प्रारंभ | दशक 78