Shriman Narayaneeyam

दशक 73 | प्रारंभ | दशक 75

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दशक ७४

सम्प्राप्तो मथुरां दिनार्धविगमे तत्रान्तरस्मिन् वस-
न्नारामे विहिताशन: सखिजनैर्यात: पुरीमीक्षितुम् ।
प्रापो राजपथं चिरश्रुतिधृतव्यालोककौतूहल-
स्त्रीपुंसोद्यदगण्यपुण्यनिगलैराकृष्यमाणो नु किम् ॥१॥

सम्प्राप्त: मथुरां पहुंच कर मथुरा को
दिन-अर्ध-विगमे दिन के आधे बीत जाने पर
तत्र-अन्तरस्मिन् वहां पर बाहर के निकट
वसन्-आरामे ठहर कर उद्यान में
विहित-आशन: सम्पन्न करके भोजन
सखि-जनै:-यात: मित्र जनों के साथ
पुरीम्-ईक्षितुम् पुरी देखने की इच्छा से
प्राप: राजपथं पहुंचे राज मार्ग पर
चिर-श्रुति-धृत- बहुत काल से सुनने से धारण किए हुए
व्यालोक-कौतूहल- दर्शन की उत्सुकता
स्त्री-पुंस- स्त्री और पुरुष जन के
उद्यत्-अगण्य-पुण्य-निगलै:- विकसित होते हुए अगणित पुण्यों की जंजीर से
आकृष्यमाण: खिंचे जाते हुए
नु किम् मानो

आधा दिन बीत जाने पर आप मथुरा पहुंचे, और निकट ही एक बाहरी उद्यान में ठहर कर भोजन आदि सम्पन्न किया। पुरी देखने की इच्छा से आप मित्र जनों के संग राज पथ पर पहुंचे। जिन स्त्री और पुरुषों ने दीर्घ काल से आपकी कथाएं सुन रखीं थीं, वे आपके दर्शन की लालसा लिए हुए थे। विकसित होते हुए उन्ही के अगणित पुण्यों की जंजीर से आकृष्ट हो कर आप मानो खिंचे चले जा रहे थे।

त्वत्पादद्युतिवत् सरागसुभगा: त्वन्मूर्तिवद्योषित:
सम्प्राप्ता विलसत्पयोधररुचो लोला भवत् दृष्टिवत् ।
हारिण्यस्त्वदुर:स्थलीवदयि ते मन्दस्मितप्रौढिव-
न्नैर्मल्योल्लसिता: कचौघरुचिवद्राजत्कलापाश्रिता: ॥२॥

त्वत्-पाद्-द्युतिवत् आपके चरणों की कान्ति के समान
सराग-सुभगा: लाली वाले, सौभाग्यवती
त्वत्-मूर्तिवत्-योषित: आपके स्वरूप के समान युवतियां
सम्प्राप्ता: आ कर एकत्रित हो गईं
विलसत्-पयोधर-रुच: शोभायमान बादलों के समान सुन्दर, विकसित सुन्दर पयोधर वाले
लोला चञ्चल, दर्शनों के लिए लालायित
भवत्-दृष्टिवत् आपकी दृष्टि के समान
हारिण्य: हार धारण किए हुए, हर लेने वाली
त्वत्-उर:स्थलीवत्- आपके वक्षस्थल के समान
अयि ते अयि आपके
मन्द्-स्मित-प्रौढिवत् मधुर मुस्कान की प्रौढता के समान
नैर्मल्य-उल्लसिता: निर्मल और देदीप्यमान
कचौघ-रुचिवत्- केशों के समूह की सुन्दरता के समान
राजत्-कलाप-आश्रिता: सुसज्जित मोर पंख से, आभूषणों से

आपके चरण्द्वय की लाली से पूर्ण कान्ति के ही समान, प्रेमोत्कर्ष से द्युतिमान सौभाग्यशालिनी युवतियां आपके समीप आ गईं। जलपूर्ण मेघों के समान आपकी छटा सुशोभित थी, वे पीन पयोधरों से सुशोभित थीं। आपकी चञ्चल दृष्टि के समान उनके भी नेत्र आप ही को देखने के लिए लालायित थे। आपका वक्षस्थल अनेक हारों से मनोहर था, वे मनोहारी रूप वाली थीं। आपके मन्द हास में भी गम्भीरता देदीप्यमान थी, वे अपने निर्मल स्वभाव से देदीप्यमान थीं। आपके केशपाश मयूर पिच्छ से अलङ्कृत थे, उनके केश अलङ्कारों से सुसज्जित थे।

तासामाकलयन्नपाङ्गवलनैर्मोदं प्रहर्षाद्भुत-
व्यालोलेषु जनेषु तत्र रजकं कञ्चित् पटीं प्रार्थयन् ।
कस्ते दास्यति राजकीयवसनं याहीति तेनोदित:
सद्यस्तस्य करेण शीर्षमहृथा: सोऽप्याप पुण्यां गतिम् ॥३॥

तासाम्-आकलयन्- उन लोगों के बढाते हुए
अपाङ्ग-वलनै:- कटाक्ष दृष्टि से
मोदं हर्ष को
प्रहर्ष-अद्भुत-व्यालोलेषु आनन्द से अद्भुत चपल हुए
जनेषु तत्र लोगों में वहां
रजकं कञ्चित् धोबी किसी से
पटीं प्रार्थयन् वस्त्र मांगते हुए
क:-ते दास्यति कौन तुमको देगा
राजकीय-वसनं राजकीय वस्त्र
याहि-इति जाओ" ऐसा
तेन-उदित: उसने कहा
सद्य:-तस्य उसी समय उसके
करेण शीर्षम्-अहृथा: हाथ से शिर को काट डाला
स:-अपि-आप वह भी पा गया
पुण्यां गतिं पुण्य गति

अपने कटाक्षों के विक्षेप से आप युवतियों का हर्ष बढाते हुए जा रहे थे। लोग आनन्दातिरेक के कारण अद्भुत चपल से दिखाई दे रहे थे। वहां किसी एक धोबी से आपने वस्त्र मांगे। 'जाओ, तुमको राजकीय वस्त्र कौन देगा', उसके ऐसा कहने पर आपने तत्क्षण उसका शिर अपने हाथ से काट डाला। वह पुण्य गति को प्राप्त हो गया।

भूयो वायकमेकमायतमतिं तोषेण वेषोचितं
दाश्वांसं स्वपदं निनेथ सुकृतं को वेद जीवात्मनाम् ।
मालाभि: स्तबकै: स्तवैरपि पुनर्मालाकृता मानितो
भक्तिं तेन वृतां दिदेशिथ परां लक्ष्मीं च लक्ष्मीपते ॥४॥

भूय: फिर
वायकम्-एकम्- दर्जी को एक
आयत-मतिं (जो) उदार मति वाला था
तोषेण वेष-उचितं सन्तुष्ट हो कर वेष के अनुरूप
दाश्वांसं स्वपदं (वस्त्र) दिये, निज पद को
निनेथ सुकृतं ले गए पुण्यशाली को
क: वेद कौन जानता है
जीवात्मनाम् जीवधारियों के (पुण्यों को)
मालाभि: स्तबकै: मालाओं और पुष्प गुच्छों से
स्तवै:-अपि (और) स्तुतियों से भी
पुन:-मालाकृता फिर माली ने
मानित: भक्तिं सम्मानित किया, भक्ति
तेन वृतां उसने वरण की
दिदेशिथ दे दी
परां लक्ष्मीं च अपरिमित लक्ष्मी और
लक्ष्मीपते हे लक्ष्मीपते!

फिर एक उदार मति वाले दर्जी ने सन्तुष्ट हो कर आपके वेष के अनुसार आपको वस्त्र दिए। उस पुण्यशाली को आप अपने धाम ले गए। जीवधारियों के पुण्यों को आपके अलावा और कौन जानता है? फिर एक माली ने मालाओं और पुष्पगुच्छों से आपको सम्मानित किया। उसने भक्ति का वर मांगा। हे लक्ष्मीपते! आपने वह तो दे ही दिया अपरिमित धन भी दिया।

कुब्जामब्जविलोचनां पथिपुनर्दृष्ट्वाऽङ्गरागे तया
दत्ते साधु किलाङ्गरागमददास्तस्या महान्तं हृदि ।
चित्तस्थामृजुतामथ प्रथयितुं गात्रेऽपि तस्या: स्फुटं
गृह्णन् मञ्जु करेण तामुदनयस्तावज्जगत्सुन्दरीम् ॥५॥

कुब्जाम्-अब्ज-विलोचनाम् कुब्जा कमलनयना
पथि-पुन:-दृष्ट्वा- मार्ग में फिर देख कर
अङ्गरागे तया दत्ते अङ्गराग उसके द्वारा देने पर
साधु किल- सुन्दर निस्सन्देह
अङ्ग हे अङ्ग!
रागम्-अददा:- प्रेम दिया
तस्या: महान्तम् उसको महान
हृदि चित्तस्थाम्- हृदय में और चित्त में स्थापित करके
ऋजुताम्-अथ वह सरलता तब
प्रथयितुं गात्रे-अपि प्रकट करने के लिए शरीर में भी
तस्या: स्फुटं गृह्णन् उसकी ठोडी को पकड कर
मञ्जु करेण सुन्दर हाथ से
ताम्-उदनय:-तावत्- उसको ऊपर खींच कर तब
जगत्-सुन्दरीम् विश्व सुन्दरी (बना दिया)

फिर आपने कमलनयना कुब्जा को मार्ग में देखा। उसने आपको सुन्दर अङ्गराग दिया, जिससे प्रसन्न हो कर आपने उसके हृदय और चित्त में अपना महान प्रेम स्थापित कर दिया। उसके स्वभाव की सरलता को उसके शरीर में भी प्रकट करने के लिए आपने अपने सुन्दर हाथ से उसकी ठोडी पकड कर ऊपर की ओर खींच कर, उसका कूबड नष्ट कर उसे विश्व सुन्दरी बना दिया।

तावन्निश्चितवैभवास्तव विभो नात्यन्तपापा जना
यत्किञ्चिद्ददते स्म शक्त्यनुगुणं ताम्बूलमाल्यादिकम् ।
गृह्णान: कुसुमादि किञ्चन तदा मार्गे निबद्धाञ्जलि-
र्नातिष्ठं बत हा यतोऽद्य विपुलामार्तिं व्रजामि प्रभो ॥६॥

तावत् तदनन्तर
निश्चित-वैभवा:-तव निश्चित रूप से आपके वैभव (को जानने वाले)
विभो हे विभो!
न-अत्यन्त-पापा-जना (जो) अधिक पापी जन नहीं थे
यत्-किञ्चित्-ददते-स्म जो कुछ भी देते थे (आपको)
शक्ति-अनुगुणं (अपने) शक्ति के अनुसार
ताम्बूल-माल्य-आदिकम् पान, माला आदि
गृह्णान: कुसुम-आदि लिए हुए पुष्पादि
किञ्चन तदा मार्गे कुछ जन उस समय मार्ग में
निबद्ध-अञ्जलि: जोडे हुए हाथ (खडे थे)
न-अतिष्ठं नहीं खडा था (मैं)
बत हा यत:-अद्य कष्ट है जिस कारण आज
विपुलाम्-आर्तिम् अत्यधिक पीडा को
व्रजामि प्रभो भोग रहा हूं हे प्रभो!

हे विभो! उस समय, जो जन कुछ कम पापात्मा थे, और इसी कारण आपके वैभव को निश्चित रूप से जानते थे, वे अपने अपने सामर्थ्य के अनुसार आपको पान माला आदि कुछ भी भेंट करते थे। उस समय कुछ जन मार्ग में, पुष्प ले कर हाथ जोड कर खडे हुए थे। खेद है कि मैं वहां नहीं खडा था, इसीलिए तो आज इतनी अधिक पीडा भोग रहा हूं।

एष्यामीति विमुक्तयाऽपि भगवन्नालेपदात्र्या तया
दूरात् कातरया निरीक्षितगतिस्त्वं प्राविशो गोपुरम् ।
आघोषानुमितत्वदागममहाहर्षोल्ललद्देवकी-
वक्षोजप्रगलत्पयोरसमिषात्त्वत्कीर्तिरन्तर्गता ॥७॥

एष्यामि-इति आऊंगा मैं' इस प्रकार
विमुक्तया-अपि भेज दिए जाने पर भी
भगवन्- हे भगवन!
आलेपदात्र्या अङ्गराग देने वाली
तया दूरात् उसने दूर तक
कातरया कातर दृष्टि से
निरीक्षित-गति:-त्वम् देखा जाते हुए आपको
प्राविश: गोपुरम् प्रवेश करते हुए गोपुर में
आघोष-अनुमित- घोषणाओं से अनुमान कर के
त्वत्-आगम- आपका आना
महा-हर्ष-उल्ललत्- अत्यन्त हर्ष उल्लास से
देवकी-वक्षोज- देवकी के वक्षों से जनित
प्रगलत्-पयोरस- बहने लगी दुग्ध धारा
मिषात्- बहाने से
त्वत्-कीर्ति:- आपकी कीर्ति के
अन्त:गता फैल गई भीतर तक (नगर के)

हे भगवन! 'मैं आऊंगा' ऐसे कह कर आपने उस अङ्गराग देने वाली को भेज दिया। किन्तु उसकी कातर दृष्टि दूर तक आपकी गति का अनुसरण करती रही। तब आपने नगर के गोपुर द्वार में प्रवेश किया। घोषणाओं से और विविध हलचलों से देवकी को आपके आगमन का अनुमान हो गया। उसके स्तन मण्डल से दुग्ध धारा बहने लगी मानो आपके आने के पूर्व ही मथुरा में आपकी कीर्ति और यश फैल गए हों।

आविष्टो नगरीं महोत्सववतीं कोदण्डशालां व्रजन्
माधुर्येण नु तेजसा नु पुरुषैर्दूरेण दत्तान्तर: ।
स्रग्भिर्भूषितमर्चितं वरधनुर्मा मेति वादात् पुर:
प्रागृह्णा: समरोपय: किल समाक्राक्षीरभाङ्क्षीरपि ॥८॥

आविष्ट: प्रवेश कर के
नगरीं महोत्सववतीं नगरी में महान उत्सव के लिए सुसज्जित
कोदण्डशालां व्रजन् कोदण्ड धनुष शाला में जा कर
माधुर्येण नु (अपनी) कोमलता से या तो
तेजसा नु (अपने) तेज से या फिर
पुरुषै:-दूरेण (रक्षक) पुरुषों के द्वारा दूर से ही
दत्तान्तर: मार्ग दे देने पर
स्रग्भि:-भूषितम्- मालाओं से सुसज्जित
अर्चितं वर-धनु:- सम्पूजित श्रेष्ठ धनुष को
मा मा-इति नही नहीं' इस प्रकार
वादात् पुर: कहे जाने से पहले
प्रागृह्णा: ले कर उठा कर
समरोपय: किल (और) आरोपित कर दिया निस्सन्देह
समाक्राक्षी:- खींचा
अभाङ्क्षी:-अपि तोड भी दिया

महान धनुषोत्सव के लिए सुसज्जित नगर में प्रवेश कर के आप कोदण्ड धनुष शाला में गए। आपकी कोमलता के कारण, या फिर आपके तेज के कारण, रक्षक पुरुषों ने दूर से ही आपको मार्ग दे दिया। आपने मालाओं से सुसज्जित और सम्पूजित उस महान धनुष को देखा। 'नहीं नहीं इसे मत छूओ', ऐसा कहे जाने के पहले ही आपने उसे उठा लिया।फिर उसपर प्रत्यञ्चा आरोपित कर के उसे खींचा और तोड भी दिया।

श्व: कंसक्षपणोत्सवस्य पुरत: प्रारम्भतूर्योपम-
श्चापध्वंसमहाध्वनिस्तव विभो देवानरोमाञ्चयत् ।
कंसस्यापि च वेपथुस्तदुदित: कोदण्डखण्डद्वयी-
चण्डाभ्याहतरक्षिपूरुषरवैरुत्कूलितोऽभूत् त्वया ॥९॥

श्व: कल
कंस-क्षपण-उत्सवस्य कंस के वध के उत्सव के
पुरत: प्रारम्भ-तूर्य-उपम:- पहले प्रारम्भ के तूर्य घोष के समान
चाप-ध्वंस-महा-ध्वनि:- धनुष भंग की महा ध्वनि ने
तव विभो आपकी हे विभो!
देवान्-अरोमाञ्चयत् देवों को रोमाञ्चित कर दिया
कंसस्य-अपि च कंस के भी
वेपथु:-तत्-उदित: कम्पन उससे उठ गया
कोदण्ड-खण्ड-द्वयी- कोद्ण्ड के दो टुकडों से
चण्ड-अभ्याहत- खूब मारे गए
रक्षि-पूरुष-रवै:- रक्षक जनों के कोलाहल से
उत्कूलित:-अभूत् (कंस का कम्पन) बढ गया
त्वया आपके द्वारा

आपके धनुष भंग की महा ध्वनि ने आगामी कल सम्पन्न होने वाले कंस के वध के प्रारम्भ में होने वाले तूर्य घोष की ही मानो घोषणा कर दी। हे विभो! उस ध्वनि से देवगण रोमाञ्चित हो उठे। कंस के भी शरीर में कम्पित हो उठा। आपने कोदण्ड के दो खण्डों से रक्षक जनों को खूब पीटा, तथा उनके आर्त नाद से कंस का कम्पन और भी बढ गया।

शिष्टैर्दुष्टजनैश्च दृष्टमहिमा प्रीत्या च भीत्या तत:
सम्पश्यन् पुरसम्पदं प्रविचरन् सायं गतो वाटिकाम् ।
श्रीदाम्ना सह राधिकाविरहजं खेदं वदन् प्रस्वप-
न्नानन्दन्नवतारकार्यघटनाद्वातेश संरक्ष माम् ॥१०॥

शिष्टै:- शिष्टों ने
दुष्ट-जनै:-च और दुष्टों ने
दृष्ट-महिमा देखी महिमा
प्रीत्या च भीत्या प्रेम से और भय से
तत: सम्पश्यन् फिर देख कर
पुर-सम्पदं प्रविचरन् नगर की शोभा सम्पन्नता को विचरते हुए
सायं गत: वाटिकाम् सन्ध्या के समय चले गए वाटिका में
श्रीदाम्ना सह श्रीदामा के साथ
राधिका-विरह्जं खेदं राधा के विरह जनित कष्ट को
वदन् प्रस्वपन्- कहते हुए सो गए
आनन्दन्- आनन्दित होते हुए
अवतार-कार्य-घटनात्- अवतार के लक्ष्य की पूर्ति से
वातेश संरक्ष माम् हे वातेश! रक्षा करें मेरी

शिष्ट जनों ने प्रेम से और दुष्ट जनों ने भय से आपकी महिमा देखी। तदनन्तर सन्ध्या समय विचरण करते करते नगर की शोभा सम्पन्नता को देखते हुए आप वाटिका में चले गए। राधा विरह जनित अपने दु:ख को श्रीदामा को बताते हुए आप सो गए। अपने अवतार के लक्ष्य की पूर्ति के शीघ्र ही घटित होने की सम्भावना से आप आनन्दित भी थे। हे वातेश! मेरी रक्षा करें।

दशक 73 | प्रारंभ | दशक 75