Shriman Narayaneeyam

दशक 61 | प्रारंभ | दशक 63

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दशक ६२

कदाचिद्गोपालान् विहितमखसम्भारविभवान्
निरीक्ष्य त्वं शौरे मघवमदमुद्ध्वंसितुमना: ।
विजानन्नप्येतान् विनयमृदु नन्दादिपशुपा-
नपृच्छ: को वाऽयं जनक भवतामुद्यम इति ॥१॥

कदाचित्- एक बार
गोपालान् गोपालगण
विहित-मख- संग्रह करके यज्ञ के लिए
सम्भार-विभवान् सामग्री अनेकानेक
निरीक्ष्य त्वं (यह) देख कर आप
शौरे हे शौरे!
मघव-मदम्- इन्द्र के गर्व को
उद्ध्वंसितु-मना: नष्ट करने के मन से
विजानन-अपि-एतान् जानते हुए भी इन लोगों को
विनय-मृदु विनयपूर्वक और मधुरता से
नन्द-आदि-पशुपान्- नन्द आदि गोपालों को
अपृच्छ: पूछा
क: वा-अयं क्या है यह
जनक भवताम्- हे पिताजी! आपलोगों का
उद्यम इति आयोजन यह

हे शौरे! एक बार आपने देखा कि गोपालगण यज्ञ के लिये अनेकानेक सामग्री का संग्रह कर रहे हैं। आप यह जानते थे कि यह इन्द्र को प्रसन्न करने के लिये है, किन्तु आप इन्द्र का गर्व नष्ट करना चाहते थे। इसलिये जानते हुए भी आपने विनयपूर्वक और मधुरता से पूछा 'पिताजी आपका यह आयोजन किस लिए है?'

बभाषे नन्दस्त्वां सुत ननु विधेयो मघवतो
मखो वर्षे वर्षे सुखयति स वर्षेण पृथिवीम् ।
नृणां वर्षायत्तं निखिलमुपजीव्यं महितले
विशेषादस्माकं तृणसलिलजीवा हि पशव: ॥२॥

बभाषे नन्द:-त्वाम् कहा नन्द ने आपको
सुत ननु हे पुत्र! निश्चय ही
विधेय: मघवत: नियम है इन्द्र के लिये
मख: वर्षे वर्षे यज्ञ प्रति वर्ष
सुखयति स सुख देता है वह
वर्षेण पृथिवीम् वर्षा से पृथ्वी को
नृणाम् वर्षायत्तम् मनुष्यों की वर्षा पर आधारित है
निखिलम्-उपजीव्यम् समस्त उपजीविका
महितले भूमि पर
विशेषात्-अस्माकम् विशेषत: हमारे
तृण-सलिल-जीवा घास और जल से जीवित
हि पशव: हैं पशुगण

नन्द ने उत्तर दिया 'हे पुत्र! प्रतिवर्ष इन्द्र के लिये यज्ञ करने का विधान है। वह वर्षा से पृथ्वी को सुख देता है, भूतल पर मनुष्यों की समस्त उपजीविका वर्षा पर ही निर्भर है, विशेष कर हमारे पशुगण तो घास और जल से ही जीवित हैं।'

इति श्रुत्वा वाचं पितुरयि भवानाह सरसं
धिगेतन्नो सत्यं मघवजनिता वृष्टिरिति यत् ।
अदृष्टं जीवानां सृजति खलु वृष्टिं समुचितां
महारण्ये वृक्षा: किमिव बलिमिन्द्राय ददते ॥३॥

इति श्रुत्वा यह सुन कर
वाचं पितु:- वचन पिता के
अयि भवान्-आह अयि! आपने कहा
सरसं तर्क सहित
धिक्-एतत्-नो सत्यं धिक्कार है! यह नहीं है सत्य
मघव-जनिता ईन्द्र के द्वारा उत्पादित है
वृष्टि:-इति यत् वृष्टि यह कहना, जो
अदृष्टं जीवानां अदृष्ट (कर्म) हैं जीवों के
सृजति खलु सृजन करते हैं निश्चय ही
वृष्टिं समुचितां वृष्टि का समुचित
महा-अरण्ये महा अरण्यों में
वृक्षा: किम्-इव वृक्ष क्या कभी
बलिम्-इन्द्राय बलि इन्द्र के लिये
ददते देते हैं

हे नाथ! पिता के ये वचन सुन कर आपने तर्क सहित कहा कि ' धिक्कार है, ऐसा कहना कि वृष्टि इन्द्र के द्वारा उत्पादित है, यह सत्य नहीं है। जीव मात्र के अदृष्ट पूर्वजन्मकृत कर्मों से ही समुचित वृष्टि का सृजन होता है। अन्यथा महा अरण्यों मे स्थित वृक्ष क्या कभी इन्द्र को बलि देते हैं?'

इदं तावत् सत्यं यदिह पशवो न: कुलधनं
तदाजीव्यायासौ बलिरचलभर्त्रे समुचित: ।
सुरेभ्योऽप्युत्कृष्टा ननु धरणिदेवा: क्षितितले
ततस्तेऽप्याराध्या इति जगदिथ त्वं निजजनान् ॥४॥

इदं तावत् सत्यं यह तब सत्य ही है
यत्-इह पशव: कि यहां पशु
न: कुल-धनं हमारे कुल के धन हैं
तत्-आजीव्याय- इस लिए उनकी आजीविका के लिए
असौ-बलि: यह बलि
अचल-भर्त्रे पर्वतराज के लिए
समुचित: उचित है
सुरेभ्य:-अपि- देवताओं से भी
उत्कृष्टा ननु विशिष्ट है निश्चय ही
धरणि-देवा: पृथ्वी के देव (ब्राह्मण)
क्षितितले तत:- भूतल पर इसलिए
ते-अपि-आराध्या वे भी पूज्य हैं
इति जगदिथ त्वम् यह कहा आपने
निज-जनान् अपने स्वजनों को

'यह तो सत्य ही है कि पशु हमारे कुल के धन हैं। उनकी आजीविका के लिये यह बलि पर्वतराज के लिए उचित है। और भूतल पर देवताओं से भी भूदेव (ब्राह्मण) विशिष्ट हैं। इसलिए वे भी पूज्य है।' इस प्रकार आपने अपने स्वजनों से कहा।

भवद्वाचं श्रुत्वा बहुमतियुतास्तेऽपि पशुपा:
द्विजेन्द्रानर्चन्तो बलिमददुरुच्चै: क्षितिभृते ।
व्यधु: प्रादक्षिण्यं सुभृशमनमन्नादरयुता-
स्त्वमादश्शैलात्मा बलिमखिलमाभीरपुरत: ॥५॥

भवत्-वाचं श्रुत्वा आपके वचनों को सुन कर
बहु-मति-युता:- अत्यन्त आदर से
ते-अपि पशुपा: उन गोपालगण ने भी
द्विजेन्द्रान्-अर्चन्त: ब्राह्मणों की पूजा करके
बलिम्-अददु:- बलि चढाई
उच्चै: क्षितिभृते प्रचूरता से, गिरिराज को
व्यधु: प्रादक्षिण्यं सम्पन्नकी प्रदक्षिणा
सुभृशम्-अनमन्- बारम्बार प्रणाम किया
आदरयुता:- सादर
त्वम्-आद: आपने भोग किया
शैल-आत्मा पर्वत की आत्मा (बन कर)
बलिम्-अखिलम्- बलि समस्त (का)
आभीर-पुरत: गोपों के समक्ष

आपके वचनो सुन कर, गोपगणों ने अत्यन्त आदरपूर्वक ब्राह्मणों की पूजा की और प्रचूर मात्रा में गिरिराज को बलि चढाई। फिर प्रदक्षिणा सम्पन्न करके आदर सहित बारम्बार प्रणाम किया। आपने पर्वत की आत्मा बन कर गोपों के सामने समस्त बलि की सामग्री का भोग लगाया।

अवोचश्चैवं तान् किमिह वितथं मे निगदितं
गिरीन्द्रो नन्वेष स्वबलिमुपभुङ्क्ते स्ववपुषा ।
अयं गोत्रो गोत्रद्विषि च कुपिते रक्षितुमलं
समस्तानित्युक्ता जहृषुरखिला गोकुलजुष: ॥६॥

अवोच:-च-एवं तान् कहा और इस प्रकार उनको
किम्-इह वितथं मे क्या यहां कुछ झूठ मैने
निगदितं कहा था
गिरीन्द्र: ननु एष गिरिराज सम्भवत: यह
स्व-बलिम्-उपभुङ्क्ते अपनी बलि का भोग करता है
स्व-वपुषा अपने ही शरीर से
अयं गोत्र: यह पर्वत
गोत्रद्विषि च इन्द्र के और
कुपिते क्रुद्ध हो जाने पर
रक्षितुम्-अलं रक्षा करने में पर्याप्त है
समस्तान्- सभी की
इति-उक्ता इस प्रकार कहे जाने पर
जहृषु:-अखिला प्रसन्न हो गए सभी
गोकुल-जुष: गोकुलवासी

फिर आपने उनसे कहा ,'मैने यहां कुछ भी झूठ कहा क्या? सम्भवत: यह गिरिराज स्वयं अपने शरीर से आपकी बलि का भोग करता है। पर्वत शत्रु इन्द्र के कुपित हो जाने पर भी यह सभी की रक्षा करने में समर्थ है।' यह सुन कर सभी गोकुल वासी प्रसन्न हो गए।

परिप्रीता याता: खलु भवदुपेता व्रजजुषो
व्रजं यावत्तावन्निजमखविभङ्गं निशमयन् ।
भवन्तं जानन्नप्यधिकरजसाऽऽक्रान्तहृदयो
न सेहे देवेन्द्रस्त्वदुपरचितात्मोन्नतिरपि ॥७॥

परिप्रीता हर्ष प्रफुल्लित
याता: खलु गए जब
भवत्-उपेता आपके सङ्ग
व्रजजुष: व्रजं व्रजवासी व्रज को
यावत्-तावत्- जिस समय तब तक
निज-मख-विभङ्गं अपने यज्ञ का भङ्ग (होना)
निशमयन् सुनकर
भवन्तं जानन्-अपि- आपको जानते हुए भी
अधिक-रजसा- अधिक रजोगुण के (उत्कर्ष के कारण)
आक्रान्त-हृदय: वविक्षिप्त हृदय वाले ने
न सेहे देवेन्द्र:- नहीं सहन किया इन्द्र ने
त्वत्-उपरचित- आपके द्वारा सम्वर्धित
आत्म-उन्नति:-अपि (उसके) स्वयं की उन्नति भी

व्रजवासी हर्ष से प्रफुल्लित हो कर आपके साथ व्रज चले गए। उसी समय इन्द्र ने अपने यज्ञ के विध्वन्स के बारे में सुना। आपके पराक्रम से भलि भांति परिचित होते हुए भी, और आप ही से सम्वर्धित स्वयं की उन्नति के प्रति सजग होते हुए भी, रजोगुण के उत्कर्ष से विक्षिप्त हृदय वाले इन्द्र को यह सहन नहीं हुआ।

मनुष्यत्वं यातो मधुभिदपि देवेष्वविनयं
विधत्ते चेन्नष्टस्त्रिदशसदसां कोऽपि महिमा ।
ततश्च ध्वंसिष्ये पशुपहतकस्य श्रियमिति
प्रवृत्तस्त्वां जेतुं स किल मघवा दुर्मदनिधि: ॥८॥

मनुष्यत्वं यात: मनुष्यत्व प्राप्त
मधुभित्-अपि महा विष्णु भी
देवेषु-अविनयं (यदि) देवों का निरादर
विधत्ते चेत्- करे यदि
नष्ट:-त्रिदशसदसां नष्ट हो जाएगी देवाताओं की
क:-अपि महिमा जो कुछ भी महिमा है
तत:-च ध्वंसिष्ये इसलिए ध्वन्स कर दूंगा
पशुप-हतकस्य गोप अधम की
श्रियम्-इति सम्पत्ति, इस प्रकार
प्रवृत्त:-त्वां जेतुं प्रेरित हुए जीतने के लिए
स किल मघवा वह ही इन्द्र
दुर्मद-निधि: दुर्मद से परिपूर्ण

दुर्दम्य मद से परिपूर्ण इन्द्र ने विचार किया कि, 'यदि मनुष्यत्व को प्राप्त महा विष्णु (मधु के वध कर्ता) भी देवताओं का निरादर करते हैं, तो देवों की जो कुछ भी महिमा है वह भी नष्ट हो जाएगी। इस लिए उस अधम गोप की सारी सम्पत्ति नष्ट कर दूंगा।' इस प्रकार वह आपको जीतने का उद्यम करने लगा।

त्वदावासं हन्तुं प्रलयजलदानम्बरभुवि
प्रहिण्वन् बिभ्राण; कुलिशमयमभ्रेभगमन: ।
प्रतस्थेऽन्यैरन्तर्दहनमरुदाद्यैविंहसितो
भवन्माया नैव त्रिभुवनपते मोहयति कम् ॥९॥

त्वत्-आवासं हन्तुं आपके निवास (व्रज) को नष्ट करने के लिए
प्रलय-जलदान्- प्रलयंकारी मेघों को
अम्बर-भुवि आकाश की सतह पर
प्रहिण्वन् प्रवाहित कर के
बिभ्राण: कुलिशम्- घुमाते हुए वज्र को
अयम्-अभ्रेभ-गमन: इसने ऐरावत पर आरूढ हो कर
प्रतस्थे-अन्यै:-अन्त:- प्रस्थान किया, दूसरे (सब) अन्त:करण मे
दहन-मरुत-आद्यै:- अग्नि वायु आदि के द्वारा
विहंसित: उपहासित हुआ
भवत्-माया आपकी माया
न-एव नहीं भी
त्रिभुवनपते हे त्रिभुवनपते!
मोहयति कम् मोहित करती किसको

आपके निवास व्रज को नष्ट करने के लिए, उसने आकाश की सतह पर प्रलयंकारी मेघों को प्रवाहित किया। ऐरावत पर आरूढ हो कर वज्र को घुमाते हुए उसने प्रस्थान किया, जब कि अन्य देवगण अग्नि वायु आदि अपने अन्त:कारण मे उसका उपहास कर रहे थे। हे त्रिभुवनपते! आपकी माया किसको मोहित नहीं करती है?

सुरेन्द्र: क्रुद्धश्चेत् द्विजकरुणया शैलकृपयाऽ-
प्यनातङ्कोऽस्माकं नियत इति विश्वास्य पशुपान् ।
अहो किन्नायातो गिरिभिदिति सञ्चिन्त्य निवसन्
मरुद्गेहाधीश प्रणुद मुरवैरिन् मम गदान् ॥१०॥

सुरेन्द्र: क्रुद्ध:-चेत् इन्द्र क्रुद्ध हो जाते हैं यदि
द्विज-करुणया ब्राह्मणो की दया से
शैल-कृपया-अपि- पर्वत की कृपा से भी
अनातङ्क:- भयरहित
अस्माकम् हैं हम
नियत इति निश्चय है यह
विश्वास्य पशुपान् विश्वास दिला कर गोपों को
अहो अहो!
किम्-न-आयात: क्या नहीं आया
गिरिभिद्-इति इन्द्र इस प्रकार
सञ्चिन्त्य निवसन् सोचते हुए रुके रहे
मरुद्गेहाधीश हे मरुद्गेहाधीश!
प्रणुद मुरवैरिन् प्रणष्ट करे हे मुरारि!
मम गदान् मेरे रोगों को

इन्द्र यदि क्रुद्ध हो जाते हैं, तो भी ब्राह्मणों की दया और पर्वत की कृपा से हम निश्चय ही भयरहित हैं।' हे मरुद्गेहाधीश! इस प्रकार गोपों को विश्वास दिला कर आप चिन्ता करते हुए रुके रहे कि इन्द्र अभी तक नहीं आया। हे मुरारे! मेरे रोगों को प्रणष्ट करें।

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