Shriman Narayaneeyam

दशक 53 | प्रारंभ | दशक 55

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दशक ५४

त्वत्सेवोत्कस्सौभरिर्नाम पूर्वं
कालिन्द्यन्तर्द्वादशाब्दम् तपस्यन् ।
मीनव्राते स्नेहवान् भोगलोले
तार्क्ष्यं साक्षादैक्षताग्रे कदाचित् ॥१॥

त्वत्-सेव-उत्क:- आपकी सेवा के लिये उत्सुक
सौभरि:-नाम सौभरि नाम के (मुनि)
पूर्वं कालिन्दि-अन्त:- बहुत पहले कालिन्दि (यमुना) के अन्दर
द्वादश-आब्दम् बारह वर्ष तक
तपस्यन् तपस्या करते हुए
मीनव्राते मत्स्य समूह में
स्नेहवान् भोगलोले स्नेहासक्त हो गये (जो) क्रीडारत थे
तार्क्ष्यम् गरुड को
साक्षात्-ऐक्षत-अग्रे साक्षात देखा सामने
कदाचित् एकबार

बहुत पहले, आपकी सेवा में समुत्सुक सौभरि नाम के मुनि बारह वर्षों तक यमुना नदी के जल में तपस्या करते रहे। उस जल में क्रीडारत मत्स्यों में वे स्नेहासक्त हो गये। एकबार उन्होंने अपने समक्ष साक्षात गरुड को देखा।

त्वद्वाहं तं सक्षुधं तृक्षसूनुं
मीनं कञ्चिज्जक्षतं लक्षयन् स: ।
तप्तश्चित्ते शप्तवानत्र चेत्त्वं
जन्तून् भोक्ता जीवितं चापि मोक्ता ॥२॥

त्वत्-वाहं आपके वाहन
तं सक्षुधं तृक्षसूनुं उस क्षुधित गरुड को
मीनं कञ्चित्- मछली कोई
जक्षतं लक्षयन् खाते हुए देख कर
स तप्त:- चित्ते उसने सन्तप्त चित्त हो कर
शप्तवान्- शाप दिया
अत्र चेत्-त्वं यहां यदि तुम
जन्तून् भोक्ता जन्तुओं का भोग करोगे
जीवितं च-अपि जीवन को भी
मोक्ता मुक्त करोगे

आपके वाहन उस क्षुधित गरुड को किसी मछली को खाते देख कर सन्तप्त चित्त वाले सौभरि ने शाप देते हुए कहा कि 'यहां यदि तुम किसी जन्तु को खाओगे तो अपने जीवन से मुक्त हो जाओगे', अर्थात मर जाओगे।

तस्मिन् काले कालिय: क्ष्वेलदर्पात्
सर्पाराते: कल्पितं भागमश्नन् ।
तेन क्रोधात्त्वत्पदाम्भोजभाजा
पक्षक्षिप्तस्तद्दुरापं पयोऽगात् ॥३॥

तस्मिन् काले उसी समय
कालिय: क्ष्वेल-दर्पात् कालिय (अपने) विष के मद से
सर्प-आराते: कल्पितं सर्पों के शत्रु (गरुड) के लिये रखा हुआ
भागम्-अश्नन् भाग खा गया
तेन क्रोधात्- उससे क्रोधित हो कर
त्वत्-पद-अम्भोज-भाजा आपके चरण कमल के सेवक (गरुड) के
पक्ष-क्षिप्त:- पंख (की मार से) फेंका गया
तत्-दुरापम् उसके (गरुड के) लिये अगम्य
पय:-अगात् (यमुना के) जल में चला गया

उसी समय कालिय नाम का सर्प अपने विष के मद से सर्पों के शत्रु गरुड के लिये रखा हुआ भाग खा गया। इससे क्रोधित हो कर, आपके चरण कमलों के सेवक गरुड ने उसे अपने पंख से मारा जिससे वह यमुना के जल में ऐसे स्थान पर चला गया जो गरुड के लिये अगम्य था।

घोरे तस्मिन् सूरजानीरवासे
तीरे वृक्षा विक्षता: क्ष्वेलवेगात् ।
पक्षिव्राता: पेतुरभ्रे पतन्त:
कारुण्यार्द्रं त्वन्मनस्तेन जातम् ॥४॥

घोरे तस्मिन् जब क्रूर वह (कालिय)
सूरजा-नीर-वासे सूर्य पुत्री (यमुना) के जल में वास कर रहा था
तीरे वृक्षा किनारे के वृक्ष
विक्षता: क्ष्वेल-वेगात् नष्ट हो गये विष के वेग से
पक्षिव्राता: पेतु:- पक्षी गण गिर पडे
अभ्रे पतन्त: आकाश में उडते हुए
कारुण्य-आर्द्रम् करुणा से द्रवीभूत
त्वत्-मन:- आपका मन
तेन जातम् उससे (यह देख कर) हो गया

वह क्रूर कालिय जब सूर्य पुत्री यमुना में वास कर रहा था, उसके विष के वेग से किनारे के वृक्ष नष्ट हो गये। आकाश में उडते हुए पक्षी गण उस विष के कारण मर कर गिरने लगे। यह सब देख कर आपका मन करुणा से द्रवीभूत हो गया।

काले तस्मिन्नेकदा सीरपाणिं
मुक्त्वा याते यामुनं काननान्तम् ।
त्वय्युद्दामग्रीष्मभीष्मोष्मतप्ता
गोगोपाला व्यापिबन् क्ष्वेलतोयम् ॥५॥

काले तस्मिन्- समय में उस
एकदा एकबार
सरिपाणिं मुक्त्वा बलराम को छोड कर
याते यामुनं गये (आप) यमुना के
कानन-अन्तम् त्वयि- वन के अन्त में आप
उद्दाम-ग्रीष्म- भीषण ग्रीष्म (ऋतु के कारण)
भीष्म-ऊष्म-तप्ता अत्यधिक गर्मी से सन्तप्त
गो-गोपाला गौओं और गोपलों ने
व्यापिबन् पी लिया
क्ष्वेल-तोयम् विषयुक्त जल

उस समय एक बार आप बलराम के बिना यमुना नदी के किनारे के जङ्गल के अन्दर चले गये। भीषण ग्रीष्म ऋतु की अत्यधिक कडी धूप से सन्तप्त गौओं और गोपबालकों ने वह विषाक्त जल पी लिया।

नश्यज्जीवान् विच्युतान् क्ष्मातले तान्
विश्वान् पश्यन्नच्युत त्वं दयार्द्र: ।
प्राप्योपान्तं जीवयामासिथ द्राक्
पीयूषाम्भोवर्षिभि: श्रीकटक्षै: ॥६॥

नश्यत्-जीवान् नष्ट हुए जीवन वाले
विच्युतान् क्ष्मातले गिरे हुए धरती पर
तान् विश्वान् पश्यन्- उन सब को देख कर
अच्युत त्वं दयार्द्र: हे अच्युत आप दया से द्रवित हो कर
प्राप्य-उपान्तं पहुंच कर पास में
जीवयामासिथ जिला दिया
द्राक् शीघ्र
पीयूष-अम्भो-वर्षिभि: अमृत युक्त जल की वर्षा से
श्रीकटाक्षै: मङ्गल दृष्टि से

उन सब का जीवन नष्ट हो गया और वे सब धरती पर गिर पडे। हे अच्युत! उन सभी की यह अवस्था देख कर आप दया से द्रवित हो गये और निकट जा कर अपनी मङ्गलमय दृष्टि के अमृतमय जल की वर्षा करके उन्हें पुनर्जीवित कर दिया।

किं किं जातो हर्षवर्षातिरेक:
सर्वाङ्गेष्वित्युत्थिता गोपसङ्घा: ।
दृष्ट्वाऽग्रे त्वां त्वत्कृतं तद्विदन्त-
स्त्वामालिङ्गन् दृष्टनानाप्रभावा: ॥७॥

किं किं जात: क्या क्या हुआ
हर्ष-वर्षा-अतिरेक: हर्ष की वर्षा का अतिरेक
सर्व-अङ्गेषु- सभी अङ्गों में
इति-उत्थिता इस प्रकार पुनर्जीवित हुए
गोपसङ्घा: गोपालक गण
दृष्ट्वा-अग्रे त्वां देख कर सामने आपको
त्वत्-कृतं आपका कार्य है
तत्-विदन्त:- यह जान कर
त्वाम्-आलिङ्गन् आपका आलिङ्गन किया
दृष्ट-नाना-प्रभावा: देखा हुआ था आपका (विभिन्न) प्रभाव जिन्होंने

पुनर्जीवित हुए, अङ्ग अङ्ग में हर्षातिरेक की वर्षा का अनुभव करते हुए गोपबालक गण सविस्मय कह उठे, 'यह क्या, क्या हुआ?' आपको सामने देख कर वे जान गये कि यह आप ही का कार्य है क्योंकि उन्होंने आपके विभिन्न गौरवपूर्ण प्रभावो देखे थे।

गावश्चैवं लब्धजीवा: क्षणेन
स्फीतानन्दास्त्वां च दृष्ट्वा पुरस्तात् ।
द्रागावव्रु: सर्वतो हर्षबाष्पं
व्यामुञ्चन्त्यो मन्दमुद्यन्निनादा: ॥८॥

गाव:-च-एवं और गौएं भी
लब्ध-जीवा: पा कर जीवन
क्षणेन क्षण भर में
स्फीत-आनन्दा:- आनन्द से परिपूर्ण
त्वां च दृष्ट्वा और आपको देख कर
पुरस्तात् द्राक् सामने शीघ्र ही
आवव्रु: सर्वत: घेर लिया (आपको) सब तरफ से
हर्ष-वाष्पं आनन्दाश्रु
व्यामुञ्चन्त्य: गिराते हुए
मन्दम्-उद्यन्-निनादा: मन्द करते हुए हुंकार

क्षण भर में गौओं ने भी जीवन प्राप्त कर लिया और आनन्द से परिपूर्ण हो उठीं। आपको सामने देख कर वे शीघ्र ही आपको चारों ओर से घेर कर खडी हो गईं और आनन्दाश्रु गिराते हुए मन्द मन्द हुंकारने लगीं।

रोमाञ्चोऽयं सर्वतो न: शरीरे
भूयस्यन्त: काचिदानन्दमूर्छा ।
आश्चर्योऽयं क्ष्वेलवेगो मुकुन्दे-
त्युक्तो गोपैर्नन्दितो वन्दितोऽभू: ॥९॥

रोमाञ्च:-अयं रोमाञ्चपूर्ण है यह
सर्वत: न: शरीरे सब ओर हमारे शरीर में
भूयसी-अन्त: तीव्र है भीतर
कदाचित्-आनन्द-मूर्छा कोई आनन्द की मूर्छा
आश्चर्य:-अयं आश्चर्य पूर्ण है यह
क्ष्वेलवेग: विष का वेग
मुकुन्द- हे मुकुन्द
इति-उक्त: ऐसा कह कर
गोपै:-नन्दित: गोपों के द्वारा अभिनन्दित
वन्दित:-अभू: वन्दित हुए

'हे मुकुन्द! विष का यह वेग आश्चर्यजनक है। हमारे शरीर में सब ओर रोमाञ्च हो रहा है और भीतर आनन्द की तीव्र मूर्छा व्याप रही है।' ऐसा कह कर गोपबालकों ने आपका अभिनन्दन और वन्दन किया।

एवं भक्तान् मुक्तजीवानपि त्वं
मुग्धापाङ्गैरस्तरोगांस्तनोषि ।
तादृग्भूतस्फीतकारुण्यभूमा
रोगात् पाया वायुगेहाधिनाथ ॥१०॥

एवं भक्तान् इस प्रकार से भक्तों को
मुक्त-जीवान्-अपि नष्ट जीवन होते हुए भी
त्वं आप
मुग्ध-अपाङ्गै:- मधुर कटाक्षों से
अस्तरोगान्- रोग रहित
तनोषि कर देते हैं
तादृक्-भूत- इस प्रकार की
स्फीत-कारुण्य-भूमा समुन्नत करुणाशाली
रोगात् पाया रोगों से रक्षा करें
वायुगेहाधिनाथ हे वायुगेहाधिनाथ!

नष्ट जीवन वाले भक्तों को भी आप इस प्रकार अपने मधुर कटाक्षों से रोगरहित कर देते हैं। इस प्रकार की समुन्नत करुणा के अधिष्ठाता, हे वायुगेहाधिनाथ! रोगों से रक्षा करें।

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