Shriman Narayaneeyam

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दशक ४७

एकदा दधिविमाथकारिणीं मातरं समुपसेदिवान् भवान् ।
स्तन्यलोलुपतया निवारयन्नङ्कमेत्य पपिवान् पयोधरौ ॥१॥

एकदा एक दिन
दधि-विमाथ-कारिणीं दधि मन्थन करती हुई
मातरं माता के
समुपसेदिवान् भवान् समीप गये आप
स्तन्य-लोलुपतया स्तन पान करने के लोभ से
निवारयन्- रोकते हुए (मन्थन को)
अङ्कम्-एत्य गोद में चढ कर
पपिवान् पयोधरौ पीने लगे स्तन को

एक दिन जब यशोदा दधि मन्थन कर रही थी, आप उनके समीप गये और स्तन पान करने के लोभ से आप मन्थन को रोक कर उनकी गोद में चढ गये और स्तन पान करने लगे।

अर्धपीतकुचकुड्मले त्वयि स्निग्धहासमधुराननाम्बुजे ।
दुग्धमीश दहने परिस्रुतं धर्तुमाशु जननी जगाम ते ॥२॥

अर्धपीत- आधा पीये हुए
कुचकुड्मले स्तन कमल कली के समान
त्वयि स्निग्ध-हास- आपको मधुर हंसते हुए को
मधुर-आनन-अम्बुजे कोमल मुख कमल को
दुग्धम्-ईश दूध को हे ईश्वर!
दहने परिस्रुतं आग पर उफनते हुए
धर्तुम्-आशु उठाने के लिये शीघ्र
जननी जगाम ते माता चली गई आपकी

आधा पीये हुए कमल कली के समान स्तनों को, मधुरता से हंसते हुए कोमल मुख कमल वाले आपको, छोड कर, हे ईश्वर! अग्नि पर रखे हुए उफनते हुए दूध को उठाने के लिये आपकी माता शीघ्रता से चली गई।

सामिपीतरसभङ्गसङ्गतक्रोधभारपरिभूतचेतसा।
मन्थदण्डमुपगृह्य पाटितं हन्त देव दधिभाजनं त्वया ॥३॥

सामि-पीत- आधा पीये हुए
रस-भङ्ग-सङ्गत- से हुए रस भङ्ग के कारण
क्रोध-भार- क्रोध से भरे हुए
परिभूत-चेतसा परिभूत चित्त वाले (आपने)
मन्थ-दण्डम्- मथानी को
उपगृह्य पाटितं उठा कर तोड दिया
हन्त देव हा देव!
दधि-भाजनम् त्वया दही के पत्र को आपने

आधा ही स्तनपान कर पाने के कारण हुए रस भङ्ग से आपका चित्त क्रोध से उद्विग्न हो गया। हा देव! तब आपने मथानी को उठाया और उससे दही पात्र को मार कर उसे तोड डाला।

उच्चलद्ध्वनितमुच्चकैस्तदा सन्निशम्य जननी समाद्रुता ।
त्वद्यशोविसरवद्ददर्श सा सद्य एव दधि विस्तृतं क्षितौ ॥४॥

उच्चलत्-ध्वनितम्- ऊंची आवाज
उच्चकै:-तदा उठती हुई तब
सन्निशम्य सुन कर
जननी समाद्रुता माता दौड कर आई
त्वत्-यश:-विसर:- आपके सुयश के विस्तार के
वत्-ददर्श सा समान देखा उसने
सद्य एव दधि तुरन्त ही दधी
विस्तृतं क्षितौ फैला हुआ धरती पर

दही पात्र के टूटने की तीव्र ध्वनि सुन कर सशंकित माता यशोदा शीघ्र ही दौड कर आईं। उन्होंने देखा संसार में आपके निर्मल सुयश के विस्तार के समान धरती पर दही फैला हुआ है।

वेदमार्गपरिमार्गितं रुषा त्वमवीक्ष्य परिमार्गयन्त्यसौ ।
सन्ददर्श सुकृतिन्युलूखले दीयमाननवनीतमोतवे ॥५॥

वेदमार्ग-परिमार्गितं वेद मार्गों से (मुनियों के द्वारा) खोजे जाते हुए आप
रुषा त्वाम्-अवीक्ष्य कुपित हुई आपको न देख कर
परिमार्गयन्ती- खोजती हुई
असौ सन्ददर्श उसने देखा
सुकृतिनी- पुण्यशालिनी ने
उलूखले ऊलुखल पर
दीयमान-नवनीतम्- देते हुए मक्खन
ओतवे बिल्लियों को

जिन आप को मुनिजन वेदमार्गों के द्वारा खोजते रहते हैं, उन आपको न देख कर कुपित हुई यशोदा आपको खोजने लगी। उस पुण्यशालिनी ने आपको उलूखल पर चढे कर बिल्लियों को मक्खन खिलाते हुए देखा।

त्वां प्रगृह्य बत भीतिभावनाभासुराननसरोजमाशु सा ।
रोषरूषितमुखी सखीपुरो बन्धनाय रशनामुपाददे ॥६॥

त्वां प्रगृह्य बत आपको पकड कर, अहो!
भीति-भावना- भय की भावना से
भासुर-आनन-सरोजम्- दमकते हुए मुख कमल वाले (आपको)
आशु सा तुरन्त उसने
रोष-रूषित-मुखी क्रोध से सूर्ख मुख वाली
सखी-पुर: सखियों के सामने
बन्धनाय बान्धने के लिये
रशनाम्-उपाददे रस्सी ले आई

क्रोध से सूखे हुए मुख वाली यशोदा, तुरन्त ही, सखियों के सामने ही, भय की भावना का प्रदर्शन करने से दमकते हुए मुख कमल वाले आपको बान्धने के लिये रस्सी ले आई।

बन्धुमिच्छति यमेव सज्जनस्तं भवन्तमयि बन्धुमिच्छती ।
सा नियुज्य रशनागुणान् बहून् द्व्यङ्गुलोनमखिलं किलैक्षत ॥७॥

बन्धुम्-इच्छति मित्र रूप में चाहते हैं
यम्-एव सज्जन:- जिन्हें ही सज्जन
तं भवन्तम्-अयि उन आपको अयि!
बन्धुम्-इच्छती बान्धना चाहती हुई
सा नियुज्य उसने लगा कर
रशना-गुणान् बहून् रस्सियों और गांठों को बहुत सारी
द्व्यङ्गुल-ऊनम्- दो अङ्गुलियों जितनी कम
अखिलं पूरी (रस्सी) को
किल-ऐक्षत फिर भी पाया

जिनको सज्जन जन मित्र के रूप में बान्धना चाहते हैं उन आपको, अयि!, बान्धने की इच्छा रखने वाली यशोदा बहुत सी रस्सियों में गांठे लगा लगा कर बढाते रही फिर भी हर बार उसे दो अङ्गुल छोटा ही पाया।

विस्मितोत्स्मितसखीजनेक्षितां स्विन्नसन्नवपुषं निरीक्ष्य ताम् ।
नित्यमुक्तवपुरप्यहो हरे बन्धमेव कृपयाऽन्वमन्यथा: ॥८॥

विस्मित्-उत्स्मित- आश्चर्य चकित हंसते हुए
सखीजन-ईक्षितां सखियों के देखते हुए
स्विन्न-सन्न-वपुषं पसीने से भरे हुए शरीर वाली
निरीक्ष्य ताम् देख कर उसको
नित्य-मुक्त-वपु:- सदैव मुक्त शरीर वाले
अपि-अहो हरे भी, अहो हरि!
बन्धम्-एव बन्धन को ही
कृपया-अन्वमन्यथा: कृपा कर के स्वीकार कर लिया

नित्य मुक्त शरीर वाले अहो हरि! आश्चर्य से चकित हंसती हुई सखियों के देखते देखते, पसीने से लथ पथ शरीर वाली क्लान्त यशोदा को देख कर आपने कृपा के वशीभूत हो कर बन्धन को स्वीकार कर लिया।

स्थीयतां चिरमुलूखले खलेत्यागता भवनमेव सा यदा।
प्रागुलूखलबिलान्तरे तदा सर्पिरर्पितमदन्नवास्थिथा: ॥९॥

स्थीयतां 'बैठे रहो
चिरम्-उलूखले देर तक उलूखल में ही
खल-इति- दुष्ट' इस प्रकार (कह कर)
आगता भवनम्-एव लौट आई भवन को भी
सा यदा प्राक्- वह जब, पहले
उलूखल-बिलान्तरे उलूखल के गढ्ढे में
तदा सर्पि:-अर्पितम्- तब मक्खन रक्खे हुए को
अदन्-अवास्थिथा: खाया बैठ कर

' दुष्ट! देर तक इसी उलूखल में बैठे रहो' कह कर जब यशोदा भवन को लौट गई, तब पहले आपने बैठ कर उलूखल के गढ्ढे में रखा हुआ मक्खन खाया।

यद्यपाशसुगमो विभो भवान् संयत: किमु सपाशयाऽनया ।
एवमादि दिविजैरभिष्टुतो वातनाथ परिपाहि मां गदात् ॥१०॥

यदि-अपाश-सुगम: यदि बन्धन रहित जनों के लिये सुगम हैं
विभो भवान् हे विभो! आप
संयत: किमु बन्ध गये कैसे
सपाशया-अनया रस्सी वाली इसके द्वारा
एवम्-आदि इत्यादि
दिविजै:-अभिष्टुत: देवताओं के द्वारा संस्तुत आप
वातनाथ हे वातनाथ!
परिपाहि मां गदात् रक्षा कीजिये मेरी रोगों से

'हे विभो! यदि सांसारिक बन्धन रहित जनों के लिये आप सुगम हैं तो यशोदा की रस्सी के बन्धन में कैसे आ गये?' इस प्रकार देवताओं ने आपकी स्तुति की। हे वातनाथ! रोगों से मेरी रक्षा कीजिये।

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