Shriman Narayaneeyam

दशक 44 | प्रारंभ | दशक 46

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दशक ४५

अयि सबल मुरारे पाणिजानुप्रचारै:
किमपि भवनभागान् भूषयन्तौ भवन्तौ ।
चलितचरणकञ्जौ मञ्जुमञ्जीरशिञ्जा-
श्रवणकुतुकभाजौ चेरतुश्चारुवेगात् ॥१॥

अयि सबल मुरारे बलराम के साथ हे मुरारि!
पाणि-जानु-प्रचारै: हाथों और घुटनों के ऊपर (चलते हुए)
किम्-अपि किसी भी
भवन-भागान् भवन के भाग को
भूषयन्तौ भवन्तौ अलंकृत करते हुए आप दोनों
चलित-चरण-कञ्जौ (चलने से) चलायमान पग नूपुरों की
मञ्जु-मञ्जीर-शिञ्जा सुमधुर झंकार के शब्द
श्रवण-कुतुक-भाजौ सुनने के लिये उत्सुक आप दोनों
चेरतु:-चारु-वेगात् विचरते थे और वेग से

हे मुरारि! बलराम के साथ आप दोनों हाथों और घुटनों के बल चलते हुए भवन के किसी भी भाग में पहुंच जाते थे और आपकी उपस्थिति से वह भाग मानों अलंकृत हो उठता था। चलते हुए चलायमान नूपुरों की सुमधुर झंकार को और भी सुनने की उत्सुकता से आप और भी वेग से विचरने लगते थे।

मृदु मृदु विहसन्तावुन्मिषद्दन्तवन्तौ
वदनपतितकेशौ दृश्यपादाब्जदेशौ ।
भुजगलितकरान्तव्यालगत्कङ्कणाङ्कौ
मतिमहरतमुच्चै: पश्यतां विश्वनृणाम् ॥२॥

मृदु मृदु विहसन्तौ- अति कोमलता से हंसते हुए
उन्मिषत्-दन्तवन्तौ प्रदर्शित करते हुए दांतों को
वदन-पतित-केशौ मुख पर गिरते हुए केशों वाले
दृश्य-पादाब्ज-देशौ दर्शनीय पदकमल प्रदेश वाले
भुज-गलित-कर-अन्त- भुजाओं से उतरे हुए हाथ के अन्त में
व्याल-गत्-कङ्कण-अङ्कौ लिपटे हुए कङ्ग्न से अङ्क वाले
मतिम्-अहरतम्-उच्चै: मन को हरते हुए अत्यधिकता से
पश्यतां विश्वनृणाम् देखने वाले विश्व के सभी लोगों के

मधुर कोमल हंसी से आप दोनों के सुन्दर दांत दिख जाते थे। मुख पर गिरे हुए केश और पद कमल प्रदेश अत्यन्त दर्शनीय थे। भुजाओं से नीचे सरक कर आये हुए हाथों के अन्त में लिपटे हुए कङ्कण, विश्व के सभी देखने वालों का मन अत्यधिक मात्रा में मोह लेते थे।

अनुसरति जनौघे कौतुकव्याकुलाक्षे
किमपि कृतनिनादं व्याहसन्तौ द्रवन्तौ ।
वलितवदनपद्मं पृष्ठतो दत्तदृष्टी
किमिव न विदधाथे कौतुकं वासुदेव ॥३॥

अनुसरति जनौघे पीछा किये जाते हुए लोगों के समूह से
कौतुक-व्याकुल-आक्षे उत्सुकता से चंचल आंखों वाले
किम्-अपि कैसी सी
कृत-निनादम् करने पर किलकारी
व्याहसन्तौ द्रवन्तौ हंसते हुए फिर दौडते हुए
वलित-वदन-पद्मम् घुमाते हुए मुख कमल को
पृष्ठत: द्त्त-दृष्टी पीछे की ओर डालते हुए नजर
किम्-इव न किस प्रकार का नहीं
विदधाथे कौतुकम् करते थे कौतुक
वासुदेव हे वासुदेव!

उत्सुकता से आकुल आंखों वाले लोग जब आप दोनों का पीछा करते तब आप अद्भुत किलकारी मारते हुए दौड पडते। दौडते हुए अपने मुख कमल को घुमा कर पीछे की ओर नजर डालते। हे वासुदेव! इस प्रकार आप दोनों किस किस प्रकार का कौतुक नहीं करते थे?

द्रुतगतिषु पतन्तावुत्थितौ लिप्तपङ्कौ
दिवि मुनिभिरपङ्कै: सस्मितं वन्द्यमानौ ।
द्रुतमथ जननीभ्यां सानुकम्पं गृहीतौ
मुहुरपि परिरब्धौ द्राग्युवां चुम्बितौ च ॥४॥

द्रुतगतिषु द्रुत गति से दौडते हुए
पतन्तौ-उत्थितौ गिर कर उठ जाने से
लिप्त-पङ्कौ (आप दोनों के) सन जाने से पङ्क से
दिवि आकाश में
मुनिभि:-अपङ्कै: मुनियों के द्वारा जो पङ्क रहित हैं
सस्मितं वन्द्यमानौ मुस्कुराते हुए वन्दित
द्रुतम्-अथ शीघ्रता से फिर
जननीभ्यां सानुकम्पं माताओं के द्वारा दया पूर्वक
गृहीतौ उठाए जाने पर
मुहु:अपि परिरब्धौ बार बार हृदय से लगाए जाते
द्राक्-युवां चुम्बितौ च और झट से चूम लिये जाते

आप दोनों द्रुत गति से दौडते हुए गिर जाते और फिर उठते तब पङ्क में लिप्त हो जाते। आकाश में स्थित पाप पङ्क रहित मुनि जन यह दृश्य देख कर मुस्कुराते हुए आपकी वन्दना करने लगते। दया के वशीभूत माताएं शीघ्र आ कर आप दोनों को उठा लेती और बार बार हृदय से लगा कर झट से चूम लिया करतीं।

स्नुतकुचभरमङ्के धारयन्ती भवन्तं
तरलमति यशोदा स्तन्यदा धन्यधन्या ।
कपटपशुप मध्ये मुग्धहासाङ्कुरं ते
दशनमुकुलहृद्यं वीक्ष्य वक्त्रं जहर्ष ॥५॥

स्नुत-कुचभरम्- छलछलाये स्तनों वाली
अङ्के धारयन्ती भवन्तं गोद में ले कर आपको
तरलमति यशोदा कोमल हृदय यशोदा
स्तन्यदा धन्यधन्या स्तन दे कर धन्य धन्य हो जाती थी
कपट-पशुप मध्ये हे लीला गोप! बीच बीच में
मुग्ध-हास-अङ्कुरं मनोहर हंसी से अङ्कुरित हुए
ते दशन-मुकुल-हृद्यं आपके दांत कलियों के समान सुन्दर
वीक्ष्य वक्त्रं जहर्ष देख कर मुख को हर्षित हो जाती थी

छलकते हुए स्तनों वाली यशोदा आपको गोद में ले कर स्तन पान करा कर अतिशय धन्य हो जाती। हे लीला गोप रूप धारी! स्तनपान करते हुए बीच बीच में आप हंसने लगते जिससे अङ्कुरित कलियों के समान सुन्दर आपके दांत दिखने लगते। आपके ऐसे मनोहर मुख को देख कर यशोदा हर्षोत्फुल्ल हो जाती।

तदनुचरणचारी दारकैस्साकमारा-
न्निलयततिषु खेलन् बालचापल्यशाली ।
भवनशुकविडालान् वत्सकांश्चानुधावन्
कथमपि कृतहासैर्गोपकैर्वारितोऽभू: ॥६॥

तदनु-चरण-चारी उसके बाद (जब) पैरों से चलने लगे
दारकै:-साकम्- अन्य बालकों के संग
आरात्-निलयततिषु निकट के घर आङ्गनों में
खेलन् खेलते हुए
बाल-चापल्य-शाली बाल सुलभ चपलता से
भवन-शुक-विडालान् भवन के तोतों और बिल्लियों के
वत्सकान्-च- और बछडों के
अनुधावन् कथम्-अपि पीछे दौडते हुए कैसे भी
कृत-हासै:-गोपकै:- हंसते हुए गोपों के द्वारा
वारित:-अभू: रोके जाते थे

बाद में जब आप पैरों से चलने लगे तब अन्य बालकों के संग निकट के घरों और आङ्गनों में चले जाते। वहां भवन के तोते बिल्लियों और बछडों के पीछे दौडते हुए आपको, हंसते हुए गोप जन किसी प्रकार रोक पाते।

हलधरसहितस्त्वं यत्र यत्रोपयातो
विवशपतितनेत्रास्तत्र तत्रैव गोप्य: ।
विगलितगृहकृत्या विस्मृतापत्यभृत्या
मुरहर मुहुरत्यन्ताकुला नित्यमासन् ॥७॥

हलधर-सहित:-त्वं बलराम के साथ आप
यत्र यत्र-उपयात: जहां जहां भी गये
विवश-पतित-नेत्रा:- विवशता से पड जाते थे नेत्र
तत्र तत्र-एव गोप्य: वहां वहां ही गोपियों के
विगलित-गृह-कृत्या छोड छाड के घर के काम
विस्मृत-अपत्य-भृत्या भूल करके बच्चों और सेवकों को
मुरहर हे मुरारि!
मुहु:-अत्यन्त- बारम्बार अत्यधिक
आकुला नित्यम्-आसन् व्यग्र रहती थी सदा (आपके लिये)

बलराम के साथ आप जहां जहां भी जाते, वहां वहां गोपियों की दृष्टि विवश हो कर आप ही पर पड जाती। हे मुरारि! वे बारम्बार अपने घर के काम छोड कर, अपने बच्चों और सेवकों को भूल कर सदैव आपके लिये ही व्यग्र रहती।

प्रतिनवनवनीतं गोपिकादत्तमिच्छन्
कलपदमुपगायन् कोमलं क्वापि नृत्यन् ।
सदययुवतिलोकैरर्पितं सर्पिरश्नन्
क्वचन नवविपक्वं दुग्धमप्यापिबस्त्वम् ॥८॥

प्रतिनव-नवनीतं ताजा मक्खन
गोपिका-दत्तम्- गोपिका के द्वारा दिया हुआ
इच्छन् कलपदम्- (और) मांगते हुए, मीठे गीत
उपगायन् गाते हुए
कोमलं क्व-अपि कोमलता से कहीं कहीं
नृत्यन् नाचते हुए
सदय-युवति-लोकै: दयालु युवति जनों के द्वारा
अर्पितं सर्पि:-अश्नन् दिये हुए मक्खन को खाते हुए
क्वचन नव- विपक्वं कहीं पर अभी ही पकाया हुआ
दुग्धम्-अपि- दूध भी
अपिब:-त्वम् पीते थे आप

गोपियों के द्वारा दिया हुआ ताजा मक्खन और भी पाने की इच्छा से कभी तो आप मीठे पद गाते और कभी कोमलता से नाचते। दयालु युवतियों के द्वारा दिया हुआ मक्खन खाते और कहीं कहीं तुरन्त पकाया हुआ ताजा दूध भी पीया करते।

मम खलु बलिगेहे याचनं जातमास्ता-
मिह पुनरबलानामग्रतो नैव कुर्वे ।
इति विहितमति: किं देव सन्त्यज्य याच्ञां
दधिघृतमहरस्त्वं चारुणा चोरणेन ॥९॥

मम खलु बलि-गेहे 'मेरा बलि के घर में
याचनं जातम्-आस्ताम् याचना करना हुआ था, जो हो
इह पुन:- यहां पुन:
अबलानाम्-अग्रत: अबलाओं के सामने
न-एव कुर्वे नहीं वैसा करूंगा'
इति विहित-मति: इस प्रकार निश्चय करके मन में
किं देव क्या हे देव!
सन्त्यज्य यच्ञां छोड कर मांगना
दधि-घृतम्- दही घी आदि
अहर:-त्वं ले लेते थे आप
चारुणा चोरणेन लीला चोरी द्वारा

मैने बलि के घर में याचना की थी, यह सच है। किन्तु अब इन अबलाओं के सामने वैसा नहीं करूंगा।' हे देव! क्या मन में ऐसा निश्चय कर के ही याचना छोड कर आप लीला चोरी के द्वारा दही घी आदि ले लेते थे?

तव दधिघृतमोषे घोषयोषाजनाना-
मभजत हृदि रोषो नावकाशं न शोक: ।
हृदयमपि मुषित्वा हर्षसिन्धौ न्यधास्त्वं
स मम शमय रोगान् वातगेहाधिनाथ ॥१०॥

तव दधि-घृतम्-ओषे आपके दही घी चुराने से
घोष-योषा-जनानाम्- व्रज की युवति जनों को
अभजत हृदि रोष: अनुभव नहीं होता था हृदय में क्रोध का
न-अवकाशं न शोक: नहीं कोई कमी न दु:ख
हृदयम्-अपि मुषित्वा (उनके) हृदयों को भी चुरा कर
हर्ष-सिन्धौ आनन्द समुद्र में
न्यधा:-त्वं डाल देते थे आप
वही (आप)
मम शमय रोगान् मेरे शमन (करिये) रोगों का
वातगेहाधिनाथ हे वातगेहाधिनाथ!

आपके द्वारा दही घी आदि चुरा लिए जाने से व्रज की युवतियों के हृदयों में न तो क्रोध का अनुभव होता था न हीं कोई कमी लगती थी न ही किसी प्रकार का दु:ख होता था। आप उनके हृदयों को भी चुरा लेते थे और उन्हें आनन्द समुद्र में डाल देते थे। ऐसे वही आप, हे वातगेहाधिनाथ! मेरे रोगों का शमन कीजिये।

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